Thursday, 6 June 2013

बृद्ध पिता



नहीं रोक सका स्वयं को 
निकल पड़ा 
उमंग उल्लास के साथ 
जो सपने अपने मन में संजोये थे 
उसे साकार करने की लालसा में 
वह वृद्ध पिता । 

आग बरसाती हवा 
तपती धूप 
लू का प्रकोप 
गमछे से सर और मुँह लपेटे 
तर-तर बहता पसीना 
अंगार की तरह जलती जमीन 
हर तरफ सन्नाटा 
दूर तक कोई नहीं 
सुनसान सड़क 
पर उसके कदम गन्तव्य  तक 
पहुँचने के लिए गतिमान 
कहीं - कहीं पेड़ों की छांव तले 
कुछ देर सुस्ताता 
पुनः आगे बढ़ जाता 
वह वृद्ध पिता । 

न तो भूख थी न प्यास 
चिलचिलाती धूप में 
गर्मी से शुष्क गले 
जीभ के निकलते लार से तर करता 
झुर्रीदार चेहरे पर बहते पसीने को 
गमछे से पोंछता 
वात्सल्य रस से ओत प्रोत हो 
वर्षों बाद पुत्र से मिलने को आतुर 
बढ़ता ही जाता 
वह वृद्ध पिता 

अन्ततः पहुँच ही गया 
शहर के बीच 
चमचमाते उस आलीशान भवन में 
सुसज्जित कमरा 
ए सी ऑन 
सोफे पर धंसा वह युवक 
बियर भरे गिलास से 
स्नैक्स के साथ 
टी वी पर आँख गडाए 
एडल्ट मूवी में मग्न 
बेफिक्र उस युवक की नज़र 
ज्यों ही पिता पर पड़ी 
उसने धिक्कारा 
यह कैसी बेवकूफी 
इस वक़्त आपका अचानक आना 
ऐसी देहाती वेश भूषा में 
मेरे स्टेटस पर धब्बा लगाएगा 
इसका ख्याल किये बगैर धमक जाना 
क्या उचित है 
सुनकर हतप्रभ था 
किमकर्तव्यविमूढ था 
अपने पुत्र के समक्ष
वह वृद्ध पिता । 

बीस बरस विदेश में रहने के पश्चात 
शहर में रहने की खबर सुनकर 
नहीं रोक सका था स्वयं को 
अश्रु-कण आँखों से बह निकले 
मन धिक्कारने लगा 
पुत्र मोह को नहीं रोक पाने पर 
करने लगा पश्चाताप 
एक शब्द भी मुह से नहीं निकले 
अनायास लौट पड़े
उसके लड़खडाते कदम 
अपने घर की ओर 
दुखी होकर 
मन ही मन से करने लगा प्रश्न  
कष्ट सहकर जीवन भर पढ़ाने 
सुख सुविधा मुहैय्या कराने 
ऊँचे ओहदे का पद पाने पर 
क्यों खुश था मैं 
कोई प्रत्युतर नहीं सूझा 
क्या सोचा था क्या पाया 
वह वृद्ध पिता। 

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