Saturday 31 October 2015

तुम

तुम सुबह की अलमस्त नींद
मुर्गे की बांग
कलेवा का भात
शाम की चाय
और रातों की
लोरियों की तरह हो।
तुम चिड़ियों का कलरव
बच्चों की किलकारी
प्रतीक्षित मेहमान
कौवे की टेर 
और छत पर
पसरी चाँदनी की तरह हो।
तुम मिलने से पहले ही
बिछुड़ने की छटपटाहट
बरसों का टूटता नेहबन्ध
अपने आगोश में लेने का आतुर 
दशम जलप्रपात की 
दहशत करती गूँज
और सखुए के जंगल से आती
जानी पहचानी 
आवाज की तरह हो।
तुम साँझ को जंगल से लौटते
जानवरो के ठरकी की आवाज हो
हाँ हाँ तुम
मुझमे उर्जा भरते
उर्जा श्रोत हो।
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सोना नागपुर

कभी था सबकुछ
अनछुआ और कुंवारा
यह प्राकृतिक स्थल
छोटा नागपुर ।
सोना नागपुर ।।

प्रकृति और जीव जहाँ एकाकार हो
जहाँ केवल एक ही सत्ता राज हो
वह होता है प्रेम
उसी प्रेम स्थल का नाम है
छोटा नागपुर ।
सोना नागपुर ।।

यहाँ की जन-जातियाँ
एक दूसरे में एकात्मा
न कोई स्त्री न कोई पुरुष
किसी भी भेद-विभेद से परे
दोनों के बीच घटती 
एक साधारण सी शारीरिक क्रिया
अलौकिक लगती है
वह प्रेम का प्रतीक है
छोटा नागपुर ।
सोना नागपुर ।।

सब कुछ रोमांचकारी
वह अनुभव
जो अनुभूत तो किया जा सके
पर व्यक्त नहीं
सम्भवतः परानुभूति कहते हों शास्त्र
वह ही है
जीवन शैली की परिकाष्ठा
छोटा नागपुर ।
सोना नागपुर ।।

इस अनोखे आकर्षक स्थल पर
स्वयं वनस्पति बनकर उगना
शहद का छत्ता बनकर
मनुष्य और भूमि पर टपकना
तितली बनकर फूलों से बतियाना
रहस्यमय है
इस स्थल का साधरणपन
सच्चेपन की परिकाष्ठा के कारण
असाधरणता प्रदान करता 
वही साकार करेगा
अभिव्यक्त करेगा
छोटा नागपुर ।
सोना नागपुर ।।
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शहर की ओर

मइयाँ दो दिनों से लापता है
क्या आपको पता है ?
वह शहर घूमने आई  थी
बहुत दिनों से आश लगाई थी

क्या कहा उसका नाम ?
 कैसी बातें करते हैं आप ?
भला नदी के फुदकते, दौड़ते, बहते
पानी के उस अंश को पकड़कर
उस पर कोई नाम
खोदा जा सकता है ?
आप शहर आकर
शहरी बन कर भले ही
अपने बच्चों का नामकरण कर
किसी भी नाम से पुकारते हैं
तब कोई उसे पह्चानता है
परन्तु हम वनवासी
गंध से पहचानते हैं
आहटों से सुनते हैं
नाम से नहीं जानते हैं ।

उसने कपड़े क्या पहन रखें हैं ? 
कैसी बेतुकी बात करते हैं आप ?
धरती को ही बिछाती-ओढ़ती 
रही है वह
हरे लिवास की तरह था
उसके लिए
पूरा का पूरा जंगल ।

क्या कहा आपने ?
वह शहर में नही आई
नही नही !!
यह कैसे कहते हैं भाई ?
घासों से घिरी उस पगडंडी ने
आज तक संजो कर रखे है
अपने सीने पर 
उसके कोमल पाँव के
छोटे छोटे निशान
जो अब भी कंपकपा रहे हैं
विदा होने के बाद 
पहाड़ों के झुर्रीदार हाथ
सुनाई पड़ती है 
वनफूलों की झाड़ियों में 
उसकी खिलखिलाहट ।

कुछ और बताऊँ ? 
आपको कैसे समझाऊँ
क्या आपने फूलों को तोड़कर
अपनी अँजुरी में रखा है
कैसा लगा था स्पर्श ? 
उसने हर मौसम को
आईने में उतारा है
ऋतुओं की ऊँगली पकड़ कर
चलती है वह
फूटने लगती है वसंत में
उसकी नर्म नर्म नई कोपलें
महक उठती है पतझड़ में
महुए के फ़ूल सी स्मृतियाँ
पेड़ से गिरते हैं पत्ते 
मानो उसके अन्तस् की उदासी लिए ।

यह कहना सही है
इस खिलती जवानी में
लड़कपन की नादानी में
उसे अकेले नही जाना था
परन्तु क्या करूँ ? 
वह शुरू से ही कहती थी
मुझे शहर जाना है
अपनी जिद में उसने कभी
किसी को नही माना है ।

कोई शहरी जंगली बनकर
करता होगा दुर्व्यवहार
नहीं नहीं ऐसा मत कहो
हम तो वनवासी हैं
जब भी कोई शहरी
जंगल में फंस जाता है
हम बचाते हैं
जंगल के बाहर तक
सुरक्षित पहुंचाते हैं
दीमक एक पेड़ को भले ही खोखला कर दे
पर हम वनवासी
पेड़ में कभी भी दीमक नही लगने देते ।

आपका कहना बिलकुल ठीक है
बिना सबूत के थाने में
नही लिखाई जाती रपट
लेकिन आप कानून को जानते हैं
वनवासियों को नही पहचानते हैं
क्या आपका कानून सुन सकेगा
फूलों की झाड़ियों का बयान ?
देख सकेगा पहाड़ों के झुर्रीदार हाथ
समझ सकेगा कल-कल नाद करती
नदियों और झरनों की गति को ? 
इसीलिए कहता हूँ
आप आत्मा से पूछिए
शहरी मत बनिए ।
कानून की पुस्तक
धरी की धरी रह जाएगी
आत्मा से निकली हुई आवाज
स्वयं को धिक्कारेगी
तब कौन सा जवाब देंगे आप ?

तभी तो कहता हूँ
मेरी मइयाँ दो दिनों से लापता है
क्या आपको पता है ?
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Tuesday 27 October 2015

वाद्य यंत्र

आदिवासी मस्त
वाद्य यंत्र मिलेंगे सर्वत्र।
रसिक कलाकार 
इसीमे दिखते हैं व्यस्त।

पहला वाद्य यंत्र
नगाड़ा
वृहद नगाड़ा
मध्यम नगाड़ा
छोटा नगाड़ा
हर पर्व-त्यौहार-उत्सव का प्रतीक
नगाड़ा ।

ढाँक
ढोल-ढोलक
चोड़-चोड़ी (करह)
मांदर
ठेचका
फेचका
सेईखो (रेगड़ा)
सेकोय
घाघर या घुघरा
गोड़ाम
बांसुरी
मोहन बांसी
तिरियो
मुरली
जोड़ा मुरली
शहनाई
सँखवा
भेइर
कुडूदुतू या नरसिंघा
टोहिला या टुहिला
केन्दरा
बनम
सारंगी
भुआड़ 
भुआंग
इनकी प्रकृति और संस्कृति एक है
झारखण्डी जनजातियों का
वाद्य यंत्र अनेक हैं

ये वाद्य यंत्र
कलाकारों या रसिकों के
वेशकीमती गहने हैं
कामिनी आभूषणों से होते हैं सुशोभित
कलाकार रसिक
वाद्यों से होते हैं विभूषित।
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मैं और मेरा शहर

मैं छोटा था
शहर भी छोटा था
इसीलिए सुन्दर था
शान्त था 
रमणीय था
और अलग भी
दूसरे अन्य शहरों से।

मैं बड़ा हो गया
शहर भी बड़ा हो गया
फैल गया
मेरी तरह खत्म ही गई
उसकी भी शान्ति।
चंचलता, शोखपन,
रवानगी, दीवानगी
मेरी नष्ट हो गई है
शहर की भी सुन्दरता
दफन हो गई है
इसकी भी इन्सानियत
कहीं खो गई है।

याद आ गई
बहुत पहले कही गई बातें
'इस तरह उनका बड़प्पन
कि बड़ी चीजें
बहुत छोटी हो जाती है
उनके सामने'।

बड़ा होना खल गया
मुझे भी और 
अपने शहर राँची को भी।

अपने शहर का सड़क

नई चमचमाती सड़क पर
रात पैदल चलते हुए
अनायास याद आता है
अपने शहर का 
लाल-लाल मोरम से बना 
टेढ़ी-मेढ़ी वह सड़क।
दिन बीत गए
बरसों गुजर गए
उस समय की सड़क में
एक नई रवानगी थी
अपनापन था
भले ही वह आज की तरह
चिकनी फिसलनवाली नहीं थी
खुरदरी थी
पर प्रिय थी।

समय के साथ साथ
वह काली हो गई
पसर गई
और चौड़ी हो गई।

वर्षों पहले इस शहर के राहगीरों ने
बसाया था छोटा सा
अपना एक संसार
नुक्कड़ पर दोस्तों से मुलाकात
झोपड़ीनुमा दुकान पर
चाय पिलाती सुकरती
बाल बनानेवाला कलिया हजाम
कपड़ा धोकर इस्त्री करता रफीक
दोने में धुसका चटनी खिलाती सोमारी
केरम बोर्ड जमाते बीरू भाई
साईकिल मरम्मत करता जॉर्ज
बुक स्टॉल वाले इंदु भाई
और भी न जाने कितने जाने अनजाने
सभी मिले-जुले सुख दुःख में।

अब दुनिया कितनी बदल गई
अनजाना लग रहा है सबकुछ
चौड़ी सड़क पर 
कंकरीट के बने
अट्टालिकाओं प्रतिष्ठानों 
मॉलों के बाजारों ने 
दूर कर दिया सभी को
एक दूसरे से।

हम टूट गए
छूट गए 
विकास के नाम पर।
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Monday 26 October 2015

पर्यटन स्थल

सूरज के आगमन से
किसी भी ऋतू में
अलसाई आँखों से झरती है
दिन भर की मुस्कराहट
प्रकृति हो जाती है सुहावन
दृश्य लगता है मनभावन
मौसम के आगमन से
बृक्ष संवरते हैं
हरसिंगार के फूल झड़ते हैं
चाँद के आते ही भाग जाता है अँधेरा
शरद ऋतू के आगमन से
पेड़ों के पत्तों में
दिखता है हरापन
गमक जाता है जंगल
झरनो से बहता है
झर- झर कर दुधिया जल
थिरकने लगते हैं पॉँव
मांदर की थाप पर 
आकर्षित होते हैं वनवासी
और जुट जाते हैं
नाचते गाते
हंसी ख़ुशी के साथ
पर्यटन स्थल पर ।
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वाद्य, गीत और संगीत

वाणी का श्रृंगार है संगीत
संगीत का सौंदर्य है नृत्य
नर्तन का आभूषण है वाद्य
झारखण्ड की धरती पर 
चलना ही नृत्य है
बोलना ही संगीत है
वक्ष व् नितम्ब ही मांदर है
वाद्य की बात ही निराली है
वाद्य के अभाव में 
जीवन नीरस एवम् खाली है
घर का आँगन
गाँव का आँगन
अखरा
पूरे इलाके का अखरा
जतरा
अखरा या जतरा
नृत्य संगीत व् वाद्यों का संगम स्थल
अखरा में
नगाड़ा बजाते
मांदर की ताल बोलते
बांसुरी की तान छेड़ते
बनम
केंदरा
टोहिला की सुरीली ध्वनि
दिन हो या अवनि
ध्वनि सुनते ही
दिल लगता है मचलने
मन बहकने का देता है अहसास
वाद्य की ध्वनि
उत्पन्न  करता है
उत्साह उमंग और उल्लास
व्यतीत होता है
दिन श्रम में
रात मधुर गायन वादन नर्तन में
हृदय का पूर्णरूपेण
आनंद हेतु समर्पण
यह जानते हुए भी
पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण
उनके वाद्य गीत और संगीत का अनुसरण
धड़ल्ले से हो रहा है प्रयोग 
फैला रहा है
कामुकता और नग्नता का रोग
येन केन प्रकारेण
इससे लेना होगा निदान
ताकि मिट न सके
झारखण्डी संस्कृति की पहचान।
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सभ्यता और संस्कृति

अपनी सभ्यता-संस्कृति
किसी भी परिस्थिति में
धूमिल न हो
यही रहा है संकल्प
इसका कोई नही है विकल्प
जल जंगल और जमीन
अब किसके अधीन
पश्चिमी सभ्यता की नकल
पूर्वजों ने नही किया स्वीकार
हम क्यों कर रहें हैं चीत्कार
लोक कला लोक संस्कृति
इसकी दिनोदिन क्यों हो रही है दुर्गति
पर्यटन की अपार संभावनाएँ
गर्त में समा रही हैं
'अतिथि देवो भवः' की भावना
यहाँ भुलायी जा रही हैं
दबंग
साहूकार
ठेकेदार द्वारा हो रहा है 
धीरे धीरे राजनीति में 
पर्यावरण प्रदूषण
प्रकृति से खिलवाड़
बृक्षों की कटाई
क्या हो सकेगी इसकी भरपायी।
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वनवासी

आदिवासी
मूलवासी
वनवासी
जनजीवन की महागाथा
युग-युगों से समेटते
रहनेवाले ही हैं
वनवासी ।

विकास
प्रगति
उन्नति के नाम पर
झूठा भूमि अधिग्रहण
हो रहा है निरंतर
विस्थापित होते रहने वाले
पहाड़ -जंगलों के वासी
वनवासी ।

प्रदूषण
शोषण
दमन से जूझते 
सीमा से कहीं अधिक
दुःख क्लेष को झेलते
कष्ट सहते
धीर शांत मन से 
जीवन यापन करते
वनवासी।

प्रकृति से अभिन्न
अपनी व्यापक संस्कृति
जंगल-झाड़ी की तरह संघर्षरत
नदी नाले की तरह
प्रवाहमान
गतिमान रहकर
अविरल अथक परिश्रम करनेवाले
वनवासी।

किसी न किसी प्रकार
अनेकानेक षड्यंत्रों के शिकार
वन में जीवन यापन करने वाले
वन्य प्राणियों से स्नेह रखने वाले
नृशंस तांड़व उनकी देह पर
क्रमिक रूप से नष्ट होते
सामूहिक नर-संहार की चपेट में
घिरते 
विलुप्त होते
वनवासी।

सभ्य देशों द्वारा 
असभ्य व्यवहार के शिकंजे में कसते
नक्सलवादी हिंसा
माओवादी गुरिल्ला युद्धों को 
एक नए आकार प्रकार द्वारा 
परिभाषित करते 
अपनी गौरव- गाथा 
इतिहास के पन्ने में अंकित करते
हिंसा को स्वीकार किए वगैर
इक्कीसवीं सदी के धीर-वीर
वनवासी।
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Saturday 24 October 2015

पलायन

अपने राज्य को
स्वतंत्र रूप में आने के 
बीत गए पंद्रह वर्ष
तीन से तेरह होने की कहावत
दीख रही है सर्वत्र
अब भी जन जातियॉं
कहाँ है स्वतंत्र ।
छिन रहा है धन
उजड़ रहे हैं वन
विध्वंस का उड़ रहा है धूल
सियासती कर्णधार
अपनी वादें गए हैं भूल ।
हर ओर से 
सुनाई पड़ रहा है धमाका
चैन सुख छिन गया 
भय और आशंका से 
शान्त है इलाका
टिड्डियों की तरह
फैल गया है
रंगदार-माफिया की वसूली ।
एक बड़ी ताकत
जान पर आफत
आफत में है प्राण
यहॉं के आदिवासियों को
अपराधिक षड्यंत्रों से
न जाने कब मिलेगा त्राण।
कुछ लोग पनपे हैं
अपनी कमाई के लिए
मन की भरपाई के लिए
गोलियों की तड़तड़ाहट की
जुबान में
उगलते हैं आग
विवश करती है
पलायन की मजबूरी
जीविकोपार्जन हेतु
यहॉं के लोग रहे हैं भाग।
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किसके लिए झारखण्ड

आदिवासियों का हित 
एक प्रमुख एजेंडा रहा है
अलग राज्य के आंदोलन से लेकर
राज्य गठन तक।
हित को दरकिनार  कर
राज्य गठन क बाद 
राजनीति में एक लंबी लकीर
स्थानीय और बाहरी का मुद्दा
राज्य को और पीछे धकेला है
अब दिख रहा है 
गाँव-घर से राजधानी तक 
जंगल-झाड़ी की टेढ़ी-मेढ़ी सर्पिलो पगडंडियों से 
कोलतार से बनी
चमचमाती पसरी सड़को तक 
आदिम जन-जातियो की उपेक्षा
झारखण्ड की आदिम जातियो की 
नौ उप जातियाँ
असुर, बिरहोर, 
बिरजिया, हिल खड़िया, 
कोरबा, पहाड़िया,
माल पहाड़िया ,
संवर और सोरिया पहाड़िया 
झेल रही हैं उपेक्षा
दमित कर दी गयी है 
उनके हित की इच्छा
एक एक के दिमाग में 
एक ही प्रश्न 
पहाड़ की तरह तन गया है प्रचंड
किसके लिए बना झारखण्ड?
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तहस नहस

ऋषि मुनियों की शरण स्थली लहू-लुहान
कन्धे पर लटकता तीर कमान
अस्तित्वहीन और बेजान
रोग निदान हेतु जड़ी-बूटियाँ
जोश खरोस एवम् पुनर्जीवित करने वाले
पेड़ों के छाल
घाव भरनेवाली जंगल की हरी हरी पत्तियाँ
ताजगी रवानगी देनेवाले
युग-युगों से बहते जलप्रपात
उछल-कूद कर गति प्रदान करनेवाली
सर्पीली नदियाँ
चहचहाते रंग-बिरंगे 
कलरव करते पक्षी
मनमोहक मनभावन आकर्षित करते
दृश्य कहाँ गए
जारी है काले हीरे की चोरी
अच्छी लकड़ियों की तस्करी
पहाड़ बनते खाई
जंगलों की कटाई
केंद के पत्तों की अवैध ढुलाई
जमीनों पर अतिक्रमण और अधिकार
बेरंगा बेढंगा नीरस व्यवहार
तहस-नहस कर रहा है 
जन-जीवन
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झारखण्ड का भविष्य

अजब गज़ब दिखा
झारखण्ड का सियासी इतिहास
इन पंद्रह वर्षों में ।
सियासती गलियारों में
विरोधी जानलेवा प्रवृतियों में
प्रेम और दोस्ती
एक तरफ भाजपा
दूसरी तरफ 
कांग्रेस, झामुमो और राजद की तिकड़ी ने
यहॉं के लोगों को भरमाया है 
अपना उल्लू सीधा करने के ख्याल से
आजसू और जेवीएम आया है
वाम दल और निर्दलीय भी
इधर उधर मुँह मारते आए हैं
मेरा भी वजूद है
सबको समझाएं हैं
बारह महीने में 
तिन नस्लों की सरकार
दलों की राजनीति में
विकास का बंटाधार
सियासी जुदाई और मिलन की बेमिसाल दास्तानें रंग भरती रही
जनता हाँथ मलती रही ।
इन दलों के दलदल में 
भोली भाली जनता चकराई है
झारखण्ड का क्या भविष्य होगा
समझ नही पायी है।
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