Saturday 22 October 2016

प्रेम



अंतर्निहित है प्रेम में
आखर आखर चाह
प्रेम का दुर्गम है राह
प्रेम में नही होता अपवाद
प्रेम का अनहद नाद
प्रेम एक शब्द
एक अनुभूति
एक जीवन
एक धड़कन
एक प्रतीक्षा
एक राग
एक सुबह
एक धुन
एक उड़ान
एक यात्रा
एक संसार
एक अंतर्भाव
एक तड़प
एक प्यास
एक आश
एक पुकार
एक चेहरा
एक बोल
एक याद
कितना अपार
कितना अपरुप
व्यास है
प्रेम के वृत्त का
बंधता ही नहीं भाषा में
जीवन में ही
कहाँ बंध पाता है प्रेम
प्रेम के हवा में कोई राग है
प्रेम में आग है।
    *****
      ---- कामेश्वर निरंकुश

गाँव


कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !

ड्योढ़ी पर दादी का अभाव
आँगन  से बुआ  का लगाव
घर में दीदी का कूद- फाँद
गुम हो गया छत  का चाँद
छुट्टी   में  घर  आने  पर
यहीं सबका जमता था पाँव!
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बूढा बरगद अब है उदास
कोई नहीं दीखता आसपास
सूना वीरान लगता दालान
घर के लोगों का नहीं ध्यान
मुखिया सरपंच नहीं दीखते
कहाँ गई बरगद की छाँव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाग-बगइचा ठाकुरबाड़ी
जहाँ मिलते थे बारी-बारी
जाति-पाँति का भेदभाव
अर्थहीन गप काँव- काँव
धीर-े धीरे नासूर बन रहा
ऊँच-नीच का उभरा घाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाबा की छड़ी खड़ाऊँ
ताक रही है कोने से
दादी का ऐनक- चिलम
पूजा थाल बिन धोने से
तुलसी का चौरा लीपे बिना
खुद बता रहा है हाव् भाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गॉंव !!

झाल, मंजीरा, दन्ताल, ढोल
सुनने मिलती घर घर की पोल
फगुआ, चैती के मधुर गीत
नही मिलते पहले सा मीत
खेत खलिहान में राजनीति की
बहस छिड़ी है ठांव  कुठांव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!
            ****

गाँव



कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !

ड्योढ़ी पर दादी का अभाव
आँगन  से बुआ  का लगाव
घर में दीदी का कूद- फाँद
गुम हो गया छत  का चाँद
छुट्टी   में  घर  आने  पर
यहीं सबका जमता था पाँव!
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बूढा बरगद अब है उदास
कोई नहीं दीखता आसपास
सूना वीरान लगता दालान
घर के लोगों का नहीं ध्यान
मुखिया सरपंच नहीं दीखते
कहाँ गई बरगद की छाँव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाग-बगइचा ठाकुरबाड़ी
जहाँ मिलते थे बारी-बारी
जाति-पाँति का भेदभाव
अर्थहीन गप काँव- काँव
धीर-े धीरे नासूर बन रहा
ऊँच-नीच का उभरा घाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाबा की छड़ी खड़ाऊँ
ताक रही है कोने से
दादी का ऐनक- चिलम
पूजा थाल बिन धोने से
तुलसी का चौरा लीपे बिना
खुद बता रहा है हाव् भाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गॉंव !!

झाल, मंजीरा, दन्ताल, ढोल
सुनने मिलती घर घर की पोल
फगुआ, चैती के मधुर गीत
नही मिलते पहले सा मीत
खेत खलिहान में राजनीति की
बहस छिड़ी है ठांव  कुठांव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

शरद का चाँद



इस ऋतु में
चाहकर भी नहीं
भूल पाउँगा तुम्हे।

गांव की गली का
वह तीसरा मोड़
जहाँ पहली बार मिले थे
मादक चंचल नयन
और आँखों ही आँखों में
एक दूसरे से
बहुत कुछ कह दिया था
हम दोनों ने।

वो बीते दिन
हरसिंगार से झरते
सुबह सबेरे
तुम्हारी बदन की खुशबू
दोपहर को मदहोश करनेवाली
महुआ की छाँव
और साँझ को
आम पेड़ के बगीचा में
हिरन सा कुलांचे भरकर
तुम्हारा अठखेलियाँ करना।

शरद ऋतु के रातों में
छिटकते चंचल किरणों के बीच
आँखों में तैरते
रातों के कुंवारे सपने
जिन्हें पकड़ने के लिए
आतुर व्याकुल थे
हमदोनो।
अब भी संजो कर रखा हूँ
तुम्हारे दिए वे कढ़े हुए
मेरे नाम का रुमाल
एक दूसरे को निभानेे का वचन
जो आज भी ज्यों का त्यों है।

सच कहूँ
आज भी तुम
उसी रात की तरह
शरद का चाँद हो।

आदत है


तेरे  हर जख़्म पर मरहम लगाऊँ,
मेरी आदत  है।
न जाने क्यों, मगर फिर भी, तुम्हे
मुझसे अदावत है।।

मेरे   डर  से  तेरी  हो  रहगुज़र,
इतनी तमन्ना है।
जो  तुझसे  दूर  है,  हर  रात  ही
जैसे  क़यामत है।।

तेरी  नज़रें  हैं   खंजर,  दिल  मेरा
हर  सिम्त  घायल है।
तेरी   मदहोश   करती   चाल,  अल्ला
कैसी  शामत   है।।

कली   गुलाब   की  है   या  कि  ये,
रुखसार   हैं   तेरे।
इन्हें   छू  लूँ,  इन्हें   चूमूँ,  ये  हसरत
और   आफत  है।।

तेरी   एक  हाँ  से  मुझको जीने  का
मकसद तो  मिल जाता।
' निरंकुश '  मर रहा है  लोग  कहते
हैं  सलामत  है  ।।
             *****

आदत है



तेरे  हर जख़्म पर मरहम लगाऊँ,
मेरी आदत  है।
न जाने क्यों, मगर फिर भी, तुम्हे
मुझसे अदावत है।।

मेरे   डर  से  तेरी  हो  रहगुज़र,
इतनी तमन्ना है।
जो  तुझसे  दूर  है,  हर  रात  ही
जैसे  क़यामत है।।

तेरी  नज़रें  हैं   खंजर,  दिल  मेरा
हर  सिम्त  घायल है।
तेरी   मदहोश   करती   चाल,  अल्ला
कैसी  शामत   है।।

कली   गुलाब   की  है   या  कि  ये,
रुखसार   हैं   तेरे।
इन्हें   छू  लूँ,  इन्हें   चूमूँ,  ये  हसरत
और   आफत  है।।

तेरी   एक  हाँ  से  मुझको जीने  का
मकसद तो  मिल जाता।
' निरंकुश '  मर रहा है  लोग  कहते
हैं  सलामत  है  ।।
             *****

बनिए



कवि सम्मेलन में कवि फटाफट जी आए
सटासट से फरमाए
कौन सी जाति सबसे अच्छी होती है  बताइये
सटासट जी बोले :- बनिए
फटाफट :- वह कैसे
सटासट  :- आपने देखा नहीं
                 हर जगह
                 इधर उधर
                 जहाँ तहाँ
                  यहाँ वहाँ
                  दूकान पर
                  हर प्रतिष्ठान पर
                  लिखा हुआ है
                  'बनिए"  
फटाफट :-   वह कैसे
 सटासट :-   हर जगह लिखा होता है -
     देश के अच्छे नागरिक "बनिए"
     सच्चे देश भक्त "बनिए"
     समझदार "बनिए"
     ईमानदार  "बनिए"
     पढ़े लिखे "बनिए"
     सच्चे "बनिए"
     अच्छे " बनिए"
     सामाजिक "बनिए"
     व्यवहारिक "बनिए"
     फलाहारी "बनिए"
     शाकाहारी "बनिए"
     सात्विक " बनिए"
     धार्मिक " बनिए"
यह देखकर और सुनकर
फटाफट घबराया
सब जातियों में बनिए ही श्रेष्ठ है बताया
बाकि सब जातियाँ
धरी की धरी रह जायेगी
कुछ कर नहीं पाएगी
सच तो यही है
झटपट
सरपट
झटाझट
सरपट यह खबर फैलाओ
जातियों में कोई भी
इसकी बराबरी कर नही पाएगा
यही कुछ अपना करतब दिखलायेगा।
                 *****
              कामेश्वर निरंकुश।

शब्दों का चमत्कार



वाकई अद्भुत शब्दों का संयोग
पहला अनुकूल
दूसरा प्रतिकूल
पहले शब्द की जीत
दूसरा पराजित
आइए मिलाइये
निर्णय जान जाइए
राम शब्द पहला
दूसरा रावण
कृष्ण पहला
दूसरा कंस
ओबामा पहला
दूसरा ओसामा
पहले शब्द ने दूसरे को क्या हस्र किया
यह सभी जानते हैं
एक अक्षर जीतता है
दूसरा हारता है
अपना राज पाट प्राण गंवाता है
यह जग जानता है
अब पहला शब्द नरेंद्र
और दूसरा नवाज़
जिसपर गिरनेवाली है गाज
छप्पन इंच के सामने
वह नहीं टिक पाएगा
एकदिन वह समाचार भी आएगा
विश्व के नक्शे में
एक खाली स्थान रह जाएगा।
                -- कामेश्वर निरंकुश

कौमी एकता



धर्म के नाम पर मत बांटो
यह हिंदुस्तान है।
यहॉं कौमी एकता की एक
अलग पहचान है ।

याद करें इतिहास
क्यों करते परिहास
यह सच है वे कई देशों से आए
यहॉं की सभ्यता को सराहा
यहीं का गुण गाया
यवन हूंण शक की
पठान मुगल मंगोल की
दास्तान एक सी रही
पहचान एक सी रही
इनसब का अनुपम योगदान है
यहॉं कौमी एकता की
अलग ही पहचान है।
यह हिंदुस्तान है।