Saturday, 22 October 2016

गाँव



कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !

ड्योढ़ी पर दादी का अभाव
आँगन  से बुआ  का लगाव
घर में दीदी का कूद- फाँद
गुम हो गया छत  का चाँद
छुट्टी   में  घर  आने  पर
यहीं सबका जमता था पाँव!
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बूढा बरगद अब है उदास
कोई नहीं दीखता आसपास
सूना वीरान लगता दालान
घर के लोगों का नहीं ध्यान
मुखिया सरपंच नहीं दीखते
कहाँ गई बरगद की छाँव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाग-बगइचा ठाकुरबाड़ी
जहाँ मिलते थे बारी-बारी
जाति-पाँति का भेदभाव
अर्थहीन गप काँव- काँव
धीर-े धीरे नासूर बन रहा
ऊँच-नीच का उभरा घाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाबा की छड़ी खड़ाऊँ
ताक रही है कोने से
दादी का ऐनक- चिलम
पूजा थाल बिन धोने से
तुलसी का चौरा लीपे बिना
खुद बता रहा है हाव् भाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गॉंव !!

झाल, मंजीरा, दन्ताल, ढोल
सुनने मिलती घर घर की पोल
फगुआ, चैती के मधुर गीत
नही मिलते पहले सा मीत
खेत खलिहान में राजनीति की
बहस छिड़ी है ठांव  कुठांव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

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