Monday 21 May 2012

अभ्यर्थना

बहुत   अच्छा   है    अकेले बैठ कर
फूल पाखी और हवा से बात करना
भीड़ संकुल राजपथ    को छोड़ कर
गाँव की पगडंडियों प    से गुजरना

हाँ, सदा  पदचिन्ह के पीछे चला मैं
सिर्फ निर्जन  का छलावा ही मिला
हृदय में जिसको   बसाया था कभी
बाद में बस रह गया शिकवा-गीला
कारवां  के साथ   था पर     चाह थी
मोड़ पर मेरे लिए तुम कुछ ठहरना

राह के     सब कंटकों को हम चुनेंगे
सांस जब तक, साथ  वह चलता रहे
समय निर्दय   है अगर तो क्या हुआ
पर    दिया  सद्भाव   का   जलता रहे
एक      हो      वातावरण तैयार ऐसा
आदमी     से      आदमी  न हो डरना

भीड़ में   पसरी हुई  बस   खलबली  है
तोड़ने       को  हो  रही   तैयारियां   है
भाग्य      रेखा देश की मानों  जली  है
हरतरफ     अलगाव की बीमारियाँ  हैं
हर    घड़ी     मैं कर      रहा हूँ प्रार्थना
हो    अपने     देश माटी  का बिखरना

ये    स      भी वह वृक्ष हैं मेरी भुजाएं
विश्व में     नश-नाड़ियों का रक्त हूँ मैं
ओढ़ लूंगा     आज     मैं सारी दिशाएं
युग युगों     से इस धरा का भक्त हूँ मैं
है न पृथ्वी       से बड़ा साम्राज्य कोई
स्वर्ग         भी है चाहता नीचे उतरना

चाहता    हूँ फूल     से वह     गंध दे दे
विहग   से मैं पंख     उसके मांग लाऊं
निर्झरों   को     मैं          उदसी सौंप दू
मैं हवा सा      हर किसी के पास जाऊं
है मेरी   अभ्यर्थना     के       पात्र सारे
सब   संवर जाएँ    तभी होगा संवरना  

Friday 11 May 2012

कविता

दिल में चुभती है
नस्तर की तरह
जिंदगी की
कुंठा
संत्रास
घुटन
एक टीस सी उठती हैं
और फ़ैल जाता है
उनसे जन्मा  दर्द
कोरे कागज़ पर
कविता बन कर ......