Tuesday 27 October 2015

अपने शहर का सड़क

नई चमचमाती सड़क पर
रात पैदल चलते हुए
अनायास याद आता है
अपने शहर का 
लाल-लाल मोरम से बना 
टेढ़ी-मेढ़ी वह सड़क।
दिन बीत गए
बरसों गुजर गए
उस समय की सड़क में
एक नई रवानगी थी
अपनापन था
भले ही वह आज की तरह
चिकनी फिसलनवाली नहीं थी
खुरदरी थी
पर प्रिय थी।

समय के साथ साथ
वह काली हो गई
पसर गई
और चौड़ी हो गई।

वर्षों पहले इस शहर के राहगीरों ने
बसाया था छोटा सा
अपना एक संसार
नुक्कड़ पर दोस्तों से मुलाकात
झोपड़ीनुमा दुकान पर
चाय पिलाती सुकरती
बाल बनानेवाला कलिया हजाम
कपड़ा धोकर इस्त्री करता रफीक
दोने में धुसका चटनी खिलाती सोमारी
केरम बोर्ड जमाते बीरू भाई
साईकिल मरम्मत करता जॉर्ज
बुक स्टॉल वाले इंदु भाई
और भी न जाने कितने जाने अनजाने
सभी मिले-जुले सुख दुःख में।

अब दुनिया कितनी बदल गई
अनजाना लग रहा है सबकुछ
चौड़ी सड़क पर 
कंकरीट के बने
अट्टालिकाओं प्रतिष्ठानों 
मॉलों के बाजारों ने 
दूर कर दिया सभी को
एक दूसरे से।

हम टूट गए
छूट गए 
विकास के नाम पर।
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