Tuesday, 3 November 2015

औरत

कई कई मोर्चे पर खड़ी
लड़ रही है
यह आदिवासी औरत।
भीड़ में अकेली, अनवरत
थकती- टूटती
फिर मजबूत करती
खुद को खुद से।
खेतों-खलिहानों में
जंगल में
घर में
आँगन में।
तुम्हारी खींची लक्ष्मण रेखा के खिलाफ
उसने बो दिए हैं
- संघर्ष बीज
और पिरो दिए हैं
- मधुर गीत
हताश होती और उलाहने देती
तुम्हारी नफरत भरी आवाज को 
बना लिया है उसने
अपनी ताकत।
मिटाने को आतुर उसके हाथ
हर उस लकीर को
जो बांधते हैं उसकी सीमा
और कराते हैं
कमतरी का अहसास
कोख से लेकर मृत्यु तक।
किन्तु अब देखने लगी है
- स्वप्निल आँखें
मोर्चे के फतह के बाद
एक दूसरी दुनिया के निर्माण का
शक नही उसे
अपने सपनो के सच होने में।
शक है उसे तो बस
तुम्हारी नीयत पर।
वह जानती है तुम्हे
दो मुंहे सांप की नीति
          -0-

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