Saturday, 7 November 2015

रांची

रांची पूर्व से ही थी
मानसिक रोग से ग्रसित
पागलों का उपचार केंद्र।
परिजन, मित्र, सगे संबंधी
आशा लिए आते थे
निराश कभी न जाते थे।
अच्छी जलवायु
स्वच्छ वातावरण
हरे- भरे जंगल
खुरदरे पर्वत
दूधिया सा झरते जलप्रपात
जनजातियों की संस्कृति
देती है आमंत्रण।
उपचार के बाद
पागल की सुधर जाती थी स्थिति
बदल जाती थी दुर्गति।
पागल कभी - कभार ही आते थे
रांची की प्रकृति का सौंदर्य
भूल नहीं पाते थे।
बीते दिन
रांची था छोटा शहर
कम रौशनी में जगमगाता सितारा
आने का मन होता था
दुबारा- तिबारा।
सीधे - सादे लोग
चाय के बागान
कन्धे पर तीर - कमान
मांदर की थाप पर थिरकती बालाएँ
सब अलौकिक था
ठहर जाता था प्रहर
कम लोगों का था यह शहर।
अशिक्षित 
सब थे सामान्य
कोई नहीं था असामान्य
इनमे पागल
शायद ही कोई दीख पाता था
जो इलाज के लिए आता था।
बदल गई परिस्थिति
सुधर गई स्थिति
हो गए सभी शिक्षित
कम रहे अशिक्षित।
भवनों की भरमार
शहर का बढ़ गया आकार
रांची बन गई राजधानी
सजाई गई बनाकर दुल्हन - सी रानी।
शोर, चित्कार, नारेबाजियां, हर्ष - उल्लास
बढ़ गया जन- शैलाब
चुँधियाती, चकचौन्ध करती बिजली
गलियारे से मुख्य सड़क तक
ब्लॉक से समाहरणालय तक
गाँव से राजधानी तक
भीड़ ही भीड़
सब के सब बेचैन
छिन गया सुख-चैन
दीख रहे हैं
हर वक्त।
हर जगह पागल ही पागल
कोई अर्थ कमाने में पागल
कोई प्रभाव दिखाने में पागल
कोई धाक जमाने में पागल
कोई रिझाने में पागल
कोई आग लगाने में पागल
क्रेता भी पागल
विक्रेता भी पागल
सत्ताधारी पागल
व्यापारी पागल।
शिक्षण संस्थान पागलों की तरह बढ़े हैं
छात्र-शिक्षक पागलों सा लड़े हैं
चिंतन धारणाएँ बदल गई
भावनाएं अन्तः से निकल गईं
साहित्य से अनभिज्ञ बन गया साहित्यकार
हर ओर कवियों -कवयित्रियों की भरमार
कवि-सम्मेलन भी ठेकेदारों द्वारा
किए जाते हैं आयोजित
चाँदी के जूते से हो गए प्रायोजित।
सब बन गए पागल
हो गए सब पागल
और कभी कभार ही
कोई पागल बाहर से आता है
रांची में आकर इलाज करा पाता है।
मानसिक चिकित्सालय में
' नो वैकेंसी ' का बोर्ड
झूलता हुआ पाता है
स्थिति स्पष्ट है
बढ़ गए हैं यहाँ
पागल ! पागल !! पागल!!!
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