Friday 6 November 2015

जन जातीय संस्कृति

षड़यंत्र का परिणाम
उजड़ रहे वन
त्रस्त हो रहा मन
बुन रहा कोई
भय भरा जंजाल
आदिवासियों को इसका
अन्तः से है मलाल
चली गई वह सुगंध
महुआ और डोरी की
गूलर और केवन्द
अलग-थलग दिख रहा
प्रियतम और गोरी की
खो गया है अब
बांसों का संगीत
संधना की सुगंध
धीरे - धीरे बिखर रहा
प्रेम का अनुबंध
भय है कोई खो न जाय 
मांदर की थाप पर मधुर गीत
अनायास बिछड़ जा रहे हैं
अपना ही गीत
आज नष्ट प्रायः है
लोक संस्कृति से जुड़े सारे प्रतीक
बदलते परिवेश में
नही पा रहे हैं टीक
जन जातीय संस्कृति का
सरहुल त्योहार
भय है धूमिल हो न जाय
संस्कृति से प्यार
ईश्वर से प्रार्थना है
करो अब उद्धार
जोहार...जोहार...जोहार।
           -0-

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