Monday, 9 November 2015

विकास के नाम पर

कभी कल कारखाने
कभी बड़े बांध
कभी खदान
उजाड़े जा रहे हैं
पुरखों के बसे बसाए गाँव
उजाड़ने के पश्चात 
नहीं सोचते उजाड़ने वाले
कहाँ बसेंगे ये उजड़े हुए लोग
नए नए बसते विकास के प्रतिष्ठानों में
भरते नित बाहर के बसे व खास विकसित लोग
नहीं पूछते वे उजड़े हुए नव जवानों को
तभी उजड़े हुए युवा 
जंगलों में डालने लगे हैं बसेरा
छः इंच छोटा करने का 
कसम ले रखा है
उजाड़ने हड़पने लूटने वालों के लिए
देश के भाग्य विधाता कहते हैं
यह मत पूछो देश ने तुम्हें क्या दिया ?
यह पूछो अपने आप से
तुमने देश के लिए क्या किया ?
नसीहत देते हैं
छः इंच छोटा करने के बदले 
एक इंच बड़ा करने का अभियान
क्यों नही चलाते ?
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सखुआ

दूर दूर तक फैला जंगल
किस्म किस्म के पेड़-पौधे
इन सबके बीच
अपनी सांस्कृतिक पहचान लिए
खड़ा सखुआ।
सखुआ पेड़ पर सिंगबोंगा का वास
आतिथ्य सत्कार में
एक दोना डियंग, होडोंग, इली,
हड़िया का शुद्ध पात्र
दोना सखुआ का।

हर पूजा - पाठ
नेग - जोग
हर संस्कार में
सिंगबोंगा की बोंगाओं को
पुरखों को
तपान् देने के लिए
दोना - पत्तल सखुआ का धूवन
पर्यावरण की खुशबू के लिए
दमदार अग्नि के लिए
मति ओझा सोखा को
ज्ञात अज्ञात पढ़ने के लिए
खेत में सोना उगलने के लिए
दूरी मापने के लिए
उलगुलान या क्रांति का सन्देश देने के लिए
जीवन के हर क्रिया कलाप के लिए
हजार साल खड़ा
हजार साल पड़ा
हजार साल सडा
कहावत को साकार करता
सखुआ महान है
विद्यमान है
हमारी झारखण्ड की धरती पर।
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आदिवासी

झारखण्ड
हरा -  भरा प्रदेश
आकर्षित करती प्राकृतिक छटा
चट्टानी पर्वत
कल - कल छल - छल नाद कर
प्रवाहित होती सर्पीली नदियाँ
पहाड़ों को चीरकर
कर्मठता, सुदृढ़ता दर्शाते
झरते गिरते हरसिंगार की तरह
श्वेत हिम की फुहार की तरह
जलप्रपात।
शीतल स्वच्छ प्रदूषणमुक्त
बहती बयार
सैलानियों, दर्शनार्थियों को मोहित करते
लुभाते पर्यटन स्थल।

निश्छल, निष्कपट
पत्ते झाड़ फ़ूल
सुसज्जित
आदिम जनजाति की संस्कृति बिखेरती
मांदर की थाप पर थिरकती
झूमती,  नाचती, गाती
कृत्रिमता से दूर
वन की सुंदरियाँ।
कूदती - फाँदती जैसे
वन वनक्षेत्र की तितलियाँ
हँसी की सम्मोहक फुहारे उंडेलती
श्रद्धा से
अपनेपन से
सहृदयता से
आगन्तुकों को
अपने देश में
झारखण्ड प्रदेश में
भिन्न-भिन्न परम्परा के वेष में
कहती है 
जोहार।

जंगलों से प्रेम
वन - जंतुओं से दोस्ती
चौड़ा वक्ष 
चमकता ललाट
श्याम वर्ण
हँसुली की छाप
गोदाए हुए दाग
अर्द्धनग्न तन
कर्तव्यपरायणता में प्रवीण
अधिकार से विमुख
अपनी धुन में लीन
मांसल देह
बलिष्ठ भुजाएँ
नम्रता से झुकी आँखें
भेदभाव लाभ-लोभ से दूर
आदिम जनजातियों के वंशज
आदिवासी।
कन्धे पर झूलते तीर-कमान
प्रबल ब्यक्तित्वमान
जीवन अथक
गतिमान
हम है झारखण्डी
हमे है अभिमान।
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काला अध्याय

अंकित हो गया
काले अध्याय का इतिहास
हमारे देश का
सबसे शर्मनाक दिन
चौबीस नवम्बर दो हजार सात
आदिवासियों के खून के छींटे
नंगी औरतों का चीत्कार
हिंसा पर उतारु
बर्बर नृशंस जनसंहार
निहत्थे, दमित, शोषित
आदिवासियों पर कहर
दारुण दुःख भोगती
व्याकुल भागती
छटपटाती, घबराती, कराहती औरतें
मानो ठहर गया था प्रहर
अपना हक, अधिकार और पहचान
ओझल होता देख सब हैं परेशान
असम के दिसपुर की सड़क पर
वहशियाना आखेट
मानवता के लिए जघन्य कुकृत्य
दानवता का नग्न नृत्य
पैशाची प्रवृति
नारियों की दुर्गति
बीच शहर में
विधानसभा से कुछ ही कदमों की दूरी
औरतों की बेरहमी का नंगा खेल
बच्चों की हत्या
नहीं समझे मजबूरी
अभी असम की बारी है
यह सम्भावना है
कल झारखण्ड की
अपनी अस्मिता बचानेवाली
खंड की बारी है।
आज राजनीति में
ऐसा भी खुला तंत्र है
प्रश्न उठता है 
उठेगा और उठता रहेगा
क्या यह लोकतंत्र है ?
यदि है तो
यह कैसा लोकतंत्र है ?
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Saturday, 7 November 2015

पहाड़ पर

आतंकियों  का  डेरा  अब जमता पहाड़ पर।
चैन  और  सुकून  नहीं  अब  है पहाड़ पर।। 

बारूद, बम, बन्दूक या फिर जानलेवायन्त्र।
अक्सर ही  मिला  करते हैं अब पहाड़ पर।।

ऋषियों-मुनियों  का  जो  स्थान  था कभी।
अब ध्वंस औ विनाश ही दीखता पहाडपर।। 

पर्वत  की  गुफाओं  में थे  जो  देवी-देवता।
जाने कहाँ  वे जा छिपे  हैं अब  पहाड़ पर।।

हर   पहाड़  पर   फ़क़त   धुआँ   ही  धुवाँ।
ग्रीन   हंट  वाले  हैं  दीखते  पहाड़   पर ।।
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जंगल

हिंसक  जन्तुओं से दूर अब हो रहा जंगल।
आतंकियों  के जाल  में  घिर रहा  जंगल।।

बारूद  बम  बंदूक  अब  शहर  से  हुए दूर।
जानलेवा   अस्त्र-शस्त्र   रख  रहा   जंगल।।

असामाजिक  लोग   जो शहरों  में जमे थे।
अब  उन सभी  को  पनाह दे  रहा  जंगल।।

अवैध  लकड़ियों  को  काट  तस्करी  होती।
तस्करों  को  मालामाल  कर  रहा  जंगल।।

धरोहर जड़ी बूटी औषधि जो जंगलों में थी।
उसे  सहेज  कर नहीं रख पा  रहा  जंगल।।

शहर   के   कुछ  लोग  अब   जंगली   हुए।
जंगल  की  हालत  देख कर रो रहा जंगल।।

रही ऋषि मुनि साधुओं  की साधना स्थली।
जाने  कहाँ वे खो गए  यह  सोचता जंगल।।

सांय-सांय  सुखद  हवा  जंगल  से गई रूठ।
धाँय-धाँय  की  ध्वनि  से  काँपता  जंगल।।
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स्वर्णरेखा बहती रही

अब  अचानक  गुनगुनाते  शालवन  जलने   लगे
किन्तु  उनके  पाँवो  से  लिपटी  नदी  बहती रही।

पर  नदी  के  पास  भी  अपनी  सुलगती  पीर  है
आग   झरते  जंगलों   की   गोद   में  तकदीर  है
शांतिचेता  खिन्न  हो  अपनी  व्यथा  सहती  रही।

कौन  सुनता  है  किसी  का  दर्द  इस  माहौल  में
आतंक  के  इस राज  के  सरताज के  माहौल  में
पर नदी कल-कल विकल अपनी कथा कहती रही।

दोपहर  की   धूप   में   जलते   पड़ावों   पर  यहॉं
शाम  ढलते  ही   पहाड़ी   की   घटाओं  पर   यहाँ
ध्वंस  औ  विध्वंस  लख  सहती  हुई चलती रही।

क्या   करें   सब  विवश  होकर  थरथराते  लाँघते
स्वर्णरेखा  का   गढ़ा    इतिहास  मन   से  बाँचते
परिवेशी  जनजातियों  की  वह गाथा  कहती  रही।

शाल  के  अपने  कथानक  भी  हैं  यहाँ  पर हैं बड़े
ये  सुहाने   वृक्ष   ऊँचे   पर्वतों  पर   हैं   जो  खडे
क्षीण  काया   देख  थर  थर  काँपते   सहती  रही।

अग्निवीणा  पर  छिड़े  हर  गीत  औ  संगीत  का
हुलसती  मांदर  की  थापों  पर  थिरकते मीत का
बदल  रहा  भूगोल  है  वह  देखकर  गलती  रही।

कोयल  की  बोली  छोड़  बन्दुक  की  गोली  सुनो
रोती  कलपती  यह  राह  है  कराहती  बोली सुनो
ऋतू  वसन्त के  माह धरती  जेठ सी तपती रही।

धीरे-धीरे  बढ़   रहे   इस   दर्द   को   सहती   रही
टीस  आह   के मर्म  का  इतिहास वह गढ़ती रही
शालवन  के  पावों  से  लिपटी  नदी  बहती  रही।
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रांची

रांची पूर्व से ही थी
मानसिक रोग से ग्रसित
पागलों का उपचार केंद्र।
परिजन, मित्र, सगे संबंधी
आशा लिए आते थे
निराश कभी न जाते थे।
अच्छी जलवायु
स्वच्छ वातावरण
हरे- भरे जंगल
खुरदरे पर्वत
दूधिया सा झरते जलप्रपात
जनजातियों की संस्कृति
देती है आमंत्रण।
उपचार के बाद
पागल की सुधर जाती थी स्थिति
बदल जाती थी दुर्गति।
पागल कभी - कभार ही आते थे
रांची की प्रकृति का सौंदर्य
भूल नहीं पाते थे।
बीते दिन
रांची था छोटा शहर
कम रौशनी में जगमगाता सितारा
आने का मन होता था
दुबारा- तिबारा।
सीधे - सादे लोग
चाय के बागान
कन्धे पर तीर - कमान
मांदर की थाप पर थिरकती बालाएँ
सब अलौकिक था
ठहर जाता था प्रहर
कम लोगों का था यह शहर।
अशिक्षित 
सब थे सामान्य
कोई नहीं था असामान्य
इनमे पागल
शायद ही कोई दीख पाता था
जो इलाज के लिए आता था।
बदल गई परिस्थिति
सुधर गई स्थिति
हो गए सभी शिक्षित
कम रहे अशिक्षित।
भवनों की भरमार
शहर का बढ़ गया आकार
रांची बन गई राजधानी
सजाई गई बनाकर दुल्हन - सी रानी।
शोर, चित्कार, नारेबाजियां, हर्ष - उल्लास
बढ़ गया जन- शैलाब
चुँधियाती, चकचौन्ध करती बिजली
गलियारे से मुख्य सड़क तक
ब्लॉक से समाहरणालय तक
गाँव से राजधानी तक
भीड़ ही भीड़
सब के सब बेचैन
छिन गया सुख-चैन
दीख रहे हैं
हर वक्त।
हर जगह पागल ही पागल
कोई अर्थ कमाने में पागल
कोई प्रभाव दिखाने में पागल
कोई धाक जमाने में पागल
कोई रिझाने में पागल
कोई आग लगाने में पागल
क्रेता भी पागल
विक्रेता भी पागल
सत्ताधारी पागल
व्यापारी पागल।
शिक्षण संस्थान पागलों की तरह बढ़े हैं
छात्र-शिक्षक पागलों सा लड़े हैं
चिंतन धारणाएँ बदल गई
भावनाएं अन्तः से निकल गईं
साहित्य से अनभिज्ञ बन गया साहित्यकार
हर ओर कवियों -कवयित्रियों की भरमार
कवि-सम्मेलन भी ठेकेदारों द्वारा
किए जाते हैं आयोजित
चाँदी के जूते से हो गए प्रायोजित।
सब बन गए पागल
हो गए सब पागल
और कभी कभार ही
कोई पागल बाहर से आता है
रांची में आकर इलाज करा पाता है।
मानसिक चिकित्सालय में
' नो वैकेंसी ' का बोर्ड
झूलता हुआ पाता है
स्थिति स्पष्ट है
बढ़ गए हैं यहाँ
पागल ! पागल !! पागल!!!
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