Sunday, 7 April 2013

चिट्ठी नारी के नाम


खुला लैपटॉप
की-बोर्ड पर दौड़ती उंगलियाँ 
माउस की हलकी सी हरकत
एक छालान्गनुमा डग भरने पर
एक आकृति उभरी

लावान्यमयी नारी को देख
आँखें ठहरी
उसके सामने संसार के सारे खजाने बेमोल
उसे नहीं सकता कोई तोल
देखते ही देखते
लिख डाली एक चिट्ठी और किया प्रेषित
उसी नारी के नाम
जिसे कुछ शब्द-शिल्पी
करना चाहते हैं बदनाम

पूर्वाग्रह से ग्रसित
अपने आप में भ्रमित
जो स्वयं को समझते हैं
साहित्यकारों के धरातल पर सर्वोपरि हरदम
वे नहीं कर पाते हज़म
ख्याति प्रशंसा
राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी का
जीवन के रंग से अछुते
एक सुस्त बेरंग बेढंग और नीरस
ज़िन्दगी जीने वाले
वे तथाकथित लोग
पाखी को पंख विहीन नहीं कर सकते
ईश्वर प्रदत है नारी में
महुआ की मादक सुगंध
चंचल नयन
आकर्षक सुगठित देंह
पायल की रुनझुन
चूड़ियों की कनक के साथ नारी ने कलम उठाई है
उपन्यास के पात्रों के माध्यम से
जीवन की विमांशा समझाई है
नारी-माँ बेटी बहु पत्नी और प्रेमिका
होने का कराती है एहसास
नारी ही पूरे रुग्ण
 समाज की रीढ़ की हड्डी को मजबूत कर
स्वस्थ समाज का करती है निर्माण
इसी से होता है जन्म-कल्याण
तुम ही  रख सकती हो
भटको पर अंकुश
तुम्हारा निरंकुश 











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