कविता
महानगरों के
शोर शराबा
भीड़ भाड़
भागती दौड़ती
धरातल से ऊबकर
वापस लौट रही है
घर की ओर
वह चाहती है
अपने लोंगों के बीच रहना
बच्चों की किलकारी सुनना
बाग बगीचों में देखना चाहती है
खिलते हुए फूल
पेड़ की टहनियों पर
चिड़ियों का चहकना
घर के मुंडेर पर कौवे का काँव काँव
दालान की चौकी पर बैठे
बाबा के भजन गाने की आवाज
दुवार पर बंधे बैल की घंटी की ध्वनि
बछड़े का कुलाँचे भरकर
गाय के थन पर मुह मारना
झुर्रीदार चेहरे से अपनापन और स्नेह के साथ
दादी द्वारा लकड़ी की आग पर
मक्के की रोटी सेंककर
गरम गरम परोसना
मटमैली साडी में सिमटी
चूड़ियों की खनक के साथ
गरम दूध का गिलास लिए
पत्नी का बढ़ता हुआ हाथ
कविता चाहती है
शब्दों में भरना
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