Wednesday, 13 November 2013

अपने शहर की सड़क


नई चमचमाती काली सड़क पर
रात पैदल चलते हुए
अनायास याद आता है
अपने शहर का
लाल लाल मोरम से बना
 टेढ़ी मेढ़ी वह सड़क ।

दिन बीत गए
बरसों गुजर गए
उस समय की सड़क में
एक नई रवानगी थी
अपनापन था
भले ही वह आज की तरह
चिकनी फिसलनवाली नहीं थी
खुरदरी थी
पर प्रिय थी ।

समय के साथ साथ
वह काली हो गई
पसर गयी
और चौड़ी हो गयी
वर्षों पहले शहर के राहगीरों ने
बसाया था छोटा सा
अपना एक संसार
नुक्कड़ पर दोस्तों से मुलाकात
झोपड़ीनुमा दूकान पर
चाय पिलाती शुक्राइन
बाल बनाने वाला कलिया हजाम
कपडा धोकर लोहा करता रफ़ीक
दोने में धुसका चटनी खिलाती सोमरी
कैरम बोर्ड जमाते वीरू भाई
साइकिल मरम्मत करता भोला
बुक स्टाल वाले इंदु भाई
और भी न जाने कितने जाने अनजाने
सभी मिले-जुले  सुख दुःख में ।

अब दुनिया कितनी बदल गयी
अनजाना लग रहा है सुब कुछ
चौड़ी सड़क पर
कंक्रीट के बने
अट्टालिकाओं प्रतिष्ठानों
मॉलों के बाजारों ने
दूर कर दिया सभी को
एक दूसरे से
हम टूट गए
छूट गए
विकास के नाम पर । 

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