Wednesday, 10 August 2016

कविता

जीवन का सार है कविता
शालीनता का दरबार है कविता
कविता जन्मती है
सृष्टि रचयिता के वन्दन से
नारी की करुण क्रंदन से
बच्चों की किलकारी से
किशोरों की आपाधापी झखमारी से
युवाओं की बलिष्ठ भुजाओं से
वृद्धों की अनुभवी सुझावों से
कुशल नेतृत्व की अगुआई से
श्मशान की कड़वी सच्चाई से
छले गए समाज से
घुटनवाली आवाज़ से
ग़रीब की असहाय बेटी से
भूख से बिलखती रोटी से
सज्जन की सच्चाई से
श्रमिकों के पैर की
फटी हुई विवाई से
माँ के मृदुल दुलार से
बहना के प्यार से
भाई की बेईमानी से
राजनीतिज्ञों की मनमानी से
सैनिकों की श्रीविजय से
न्यायालय के निर्णय से
समाज के कुठाराघात से
अपनों द्वारा घात-प्रतिघात से
लहलहाते खेतों से
तपती हुई रेतों से
बहती हुई धार से
तीक्ष्ण वाणी की कटार से
झरते हुए झरनों से
सुहागिन की गहनों से

कविता अब चाहती है
अर्द्धविराम !

थकान भरी ज़िन्दगी से
अपनी ही बन्दगी से
स्वर धीमा हो
कथ्य की सीमा हो
अब कविता
हीरे-सी अँगूठी में
नहीं गढ़ी जायेगी
भावनाओं में नहीं बह पाएगी
यह सत्य है
कविता के लिए
हरी-भरी झाड़ियों के साथ
दुर्गम खुरदरे पर्वत हों
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी हो
राजपथ से दूर हो
भावनाओं से भरपूर हो
तभी मिलेगा विराम।
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