Tuesday, 11 June 2013

नेताजी का प्रश्न



चुनावी माहौल में
लोकतंत्र के प्रतिनिधि
समय निकलकर
दूसरे दावेदारों से आँखे चुराकर
साहित्यकार के निवास पर
मन में उठे प्रश्न का
सही जवाब जानने के लिए आए

साहित्यकार जानता था
जब भी राजनेता
शब्दों के जाल में फँस जाता है
उसे सुलझाने हेतु
 साहित्यकार के पास आता है
राजनीति जब जब लडखडाती है
साहित्य ही उसे बचाता है

नेताजी ने  पूछा
वाद और गिरि का अर्थ बताइए
दोनों में क्या सम्बन्ध होता है
यह भी समझाइए

वाद
सिद्धान्त नियम कानून  सीमा दर्शाता है
गिरि सिद्धान्त के प्रणेता
नियम निर्धारक
क़ानून विशेषज्ञ और
सीमा निर्धारित करनेवाले की बनी हुई राह पर
अपनी कदम बढ़ाता है

वाद के दिन अब लद गए
वाद का सीधा ताल्लुक विचारों से होता है
हम विचारहीन समय में रह रहें हैं
अनायास बिना सोंचे बिचारे
अमानुषिक दुषित हवा में बह रहें हैं

वाद का समर्थक
कभी नहीं करता फ़रियाद
वाद की सीमओं
सिद्धान्तों वसूलों को
हरदम रखता है याद

नेताजी!
पहले गांधीवादी
लाखों की संख्या में मिल जाते थे
जो राष्ट्र के प्रति समर्पित नजर आते थे
लेकिन आज कल वे
उसी तरह अंतर्ध्यान होते जा रहे हैं
जैसे जमीन से गिद्ध
जंगलो से शेर
समुद्र से व्हेल

इस युग में
साम्यवाद
समाजवाद
कलाबाद
रुपवाद
दादावाद की तरह
चमचावाद की हवा
जबरदस्त चल रही है
जनता इन वादों के मकड़जाल में पल रही हैं

आज गिरि का जबरदस्त जमाना है
गिरि को ही सर्वोपरि मना हैं
नेतगिरी
भड़वागिरी
चमचागिरी
हर ओर चल रहा है
इसी में लोकतंत्र पल रहा है
आप भी अपने नाम से
----गिरि चला सकते हैं
वाद को छोड़िये
गिरि चलाइए
सांसद हैं हद तक बढ़ जाइए
यही लोकतंत्र के मजे हैं
मतदान के समय
भिन्न-भिन्न  प्रकार के गिरि से
बाजार आज सजे हैं
नेताजी बिना कहे चुपचाप  
चलते नजर आए
साहित्यकार उन्हें देखकर
धीरे से मुस्कुराये।





   








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