Tuesday, 4 June 2013

वह लड़की



भरे-पूरे घर में
भीड़ में भी स्वयं को
अकेला महसूस करती थी
वह लड़की!

खिड़की के भीतर से
आसमान निहारती
सन्नाटे में डूबे
जेठ की तपती दुपहरी में
गर्म हवा को झेलती
अपने खालीपन को
प्रियतम के होने का
अहसास भरते हुए खड़ी थी
वह लड़की!

वह चाहती थी
प्रिय के साथ आवारा हवा की तरह
धरती की सौंधी सुगंध को
सुंघते हुए उड़ना
चिडियों की तरह फुदकना
फूट पड़े बरसो से शुखा झरना
खिल जाए मन की  कलियाँ  
यही तो चाहती थी
वह लड़की!

बंदिशे
रोका-टोकी
समाज के दिखावी खोखलेपन
परिवार की नकारात्मक प्रवृति
रुढ़िवादिता से टूट चुकी थी
वह लड़की!

प्रियतम से यादों में महफूज़
मुरझा गया है उसका
खिलता गुलाबी चेहरा
कल तक जो खड़ी थी
खिड़की पर
जग जाती थी आहटों से
निढाल होकर
विवश हो कर लेटी है
टूटने वाली ख़ामोशी की चादर ओढ़े
अब नहीं खेलना चाहती
सुनहरी धूप से
झुलस चुकी है किरणों से तपिश से
हार चुकी है
जिंदगी का आखिरी दांव
प्यार करने पर
वह लड़की!

No comments:

Post a Comment