Saturday, 24 October 2015

पलायन

अपने राज्य को
स्वतंत्र रूप में आने के 
बीत गए पंद्रह वर्ष
तीन से तेरह होने की कहावत
दीख रही है सर्वत्र
अब भी जन जातियॉं
कहाँ है स्वतंत्र ।
छिन रहा है धन
उजड़ रहे हैं वन
विध्वंस का उड़ रहा है धूल
सियासती कर्णधार
अपनी वादें गए हैं भूल ।
हर ओर से 
सुनाई पड़ रहा है धमाका
चैन सुख छिन गया 
भय और आशंका से 
शान्त है इलाका
टिड्डियों की तरह
फैल गया है
रंगदार-माफिया की वसूली ।
एक बड़ी ताकत
जान पर आफत
आफत में है प्राण
यहॉं के आदिवासियों को
अपराधिक षड्यंत्रों से
न जाने कब मिलेगा त्राण।
कुछ लोग पनपे हैं
अपनी कमाई के लिए
मन की भरपाई के लिए
गोलियों की तड़तड़ाहट की
जुबान में
उगलते हैं आग
विवश करती है
पलायन की मजबूरी
जीविकोपार्जन हेतु
यहॉं के लोग रहे हैं भाग।
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