मंच ही है सब कुछ सभी को यह बतायेंगे हम ,
बिन तेरे महफ़िल कभी न सजा पायेंगे हम ।
तरसाओ न हमें इतना कि जान ही निकल जाये ,
याद जब भी करोगी हमें ,याद बहुत आये गे हम ।
जब भी आईं उलझनें , तुम ने सुलझाया उन्हें ,
यह कभी सम्भव ही नही कि भूल जायेंगे हम ।
दिलदार हो तुम, यार भी, दिलरुबा भी तुम हो,
तुम्हारी खामोशी भला कैसे सहन कर पायेगे हम ।
आया फागुन का महीना तेरे बिना दिल बेचैन है ,
तुम्हें रंग लगाए बिना कैसे होली खेल पाएंगे हम।
है परेशान अब निरंकुश तुम्हें चुप देखकर ,
तेरी मीठी आवाज सुने बिना कैसे जी पाएंगे हम।
कामेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव 'निरंकुश'
*****************
No comments:
Post a Comment