अब अचानक गुनगुनाते शालवन जलने लगे
किन्तु उनके पाँवो से लिपटी नदी बहती रही।
किन्तु उनके पाँवो से लिपटी नदी बहती रही।
पर नदी के पास भी अपनी सुलगती पीर है
आग झरते जंगलों की गोद में तकदीर है
शांतिचेता खिन्न हो अपनी व्यथा सहती रही।
आग झरते जंगलों की गोद में तकदीर है
शांतिचेता खिन्न हो अपनी व्यथा सहती रही।
कौन सुनता है किसी का दर्द इस माहौल में
आतंक के इस राज के सरताज के माहौल में
पर नदी कल-कल विकल अपनी कथा कहती रही।
आतंक के इस राज के सरताज के माहौल में
पर नदी कल-कल विकल अपनी कथा कहती रही।
दोपहर की धूप में जलते पड़ावों पर यहॉं
शाम ढलते ही पहाड़ी की घटाओं पर यहाँ
ध्वंस औ विध्वंस लख सहती हुई चलती रही।
शाम ढलते ही पहाड़ी की घटाओं पर यहाँ
ध्वंस औ विध्वंस लख सहती हुई चलती रही।
क्या करें सब विवश होकर थरथराते लाँघते
स्वर्णरेखा का गढ़ा इतिहास मन से बाँचते
परिवेशी जनजातियों की वह गाथा कहती रही।
स्वर्णरेखा का गढ़ा इतिहास मन से बाँचते
परिवेशी जनजातियों की वह गाथा कहती रही।
शाल के अपने कथानक भी हैं यहाँ पर हैं बड़े
ये सुहाने वृक्ष ऊँचे पर्वतों पर हैं जो खडे
क्षीण काया देख थर थर काँपते सहती रही।
ये सुहाने वृक्ष ऊँचे पर्वतों पर हैं जो खडे
क्षीण काया देख थर थर काँपते सहती रही।
अग्निवीणा पर छिड़े हर गीत औ संगीत का
हुलसती मांदर की थापों पर थिरकते मीत का
बदल रहा भूगोल है वह देखकर गलती रही।
हुलसती मांदर की थापों पर थिरकते मीत का
बदल रहा भूगोल है वह देखकर गलती रही।
कोयल की बोली छोड़ बन्दुक की गोली सुनो
रोती कलपती यह राह है कराहती बोली सुनो
ऋतू वसन्त के माह धरती जेठ सी तपती रही।
रोती कलपती यह राह है कराहती बोली सुनो
ऋतू वसन्त के माह धरती जेठ सी तपती रही।
धीरे-धीरे बढ़ रहे इस दर्द को सहती रही
टीस आह के मर्म का इतिहास वह गढ़ती रही
शालवन के पावों से लिपटी नदी बहती रही।
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टीस आह के मर्म का इतिहास वह गढ़ती रही
शालवन के पावों से लिपटी नदी बहती रही।
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