Sunday, 19 February 2017

आक्रोश

आपका
आक्रोश
जायज है
एक कलमकार
कभी
चुप
रह ही नहीं सकता
आत्मा
कचोटती है
मन
हो जाता है
वेचैन
धिक्कार है
यह जीवन
कहता है
यह मन
बाकी
लोग
शांत
क्यों हैं
आश्चर्य है
और
मीडिया वाले
उन्हें तो
नया मसाला
मिल गया
बार बार
वही
तस्वीर दिखाना
मतलब......
कलमकारों की ओर
देख
वे
शांत नहीं है
इसे
क्यों नहीं दिखाते
बार बार
और और
अंततः
सृजित
हो ही जाती है
कविता
आक्रोश
और
सृजित
क्यों नही
होगी? ? जहाँ
रचनाकार हैं
कवि हैं
कवयित्री हैं
और रहेगी
अन्य अन्य वेश में
रूप में
रंग में
लेखनी
थामे हुए
कविता
लिखते हुए
अपनी
अस्मिता को
देखते हुए
पहचानते हुए
हाँ हाँ
आह्वान
है यह
महा आह्वान
है यह
गतिमान है
अनवरत
तब
कलम
चली
लिखी
और
कह रही है
रचनाकारों से
मानव में
पनपती
यौन पशुता
फैलती
चतुर्दिक
मंडराती
कामुक
दृष्टि
नारियों की
छटपटाती
जिजीविषा
घटती
विभत्स
घटनाएँ
रोकने हेतु
कलम
उठाएँ
नया आयाम
जगाएँ
उन्हें
कभी न
छोड़ें
जमकर
मरोड़ें
तभी
साकार
होंगी
आक्रोश
की
कविता।
              *****
               @   # कामेश्वर निरंकुश।

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