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विश्वास तो था ही मुझे
अपनी कविता पर
आस्था ने उसकी जड़ें
और भी मजबूत कर दी हैं
कविता अब सीमित नहीं है
साम्प्रदायिकता विरोध
सत्ता विरोध
महंगाई विरोध
बाज़ार विरोध जैसे चालू नुस्खों तक
कविता
अस्थानियता और लोक से जुड़कर
कविता लोक का
एक नया प्रतिरूप गढ़ती हुई
आगे बढ़ी है
कविता यह ताड़ गयी है
महाकवियों को कहाँ फुर्सत है
गाँव क़स्बा किसान को देखने की
कविता ने इस ओर अब
अपना रुख किया है
गाँव से जुड़ी
संस्कृति की माटी से
जन्म लेना चाहती है कविता
गाँव के खेतों की माटी की गंध से
आने लगी है आवाज़
यहाँ पार्टियों के धर्मों के झंडे मत गाड़ो
माटी के भीतर छिपे दबी हुई तह से
तड़प के दर्द की टीस की
कर्राहती हुई आवाज़ निकलने लगी है
भीतर अन्न का दाना है
पनपने दो उसे
वही कविता का तत्व है
मर्म है
अर्थ है
धर्म है!!!