Friday, 18 November 2016

कविता का तत्व


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विश्वास तो था ही मुझे
अपनी कविता पर
आस्था ने उसकी जड़ें
और भी मजबूत कर दी हैं
कविता अब सीमित नहीं है
साम्प्रदायिकता विरोध
सत्ता विरोध
महंगाई विरोध
बाज़ार विरोध जैसे चालू नुस्खों तक
कविता
अस्थानियता और लोक से जुड़कर
कविता लोक का
एक नया प्रतिरूप गढ़ती हुई
आगे बढ़ी है
कविता यह ताड़ गयी है
महाकवियों को कहाँ फुर्सत है
गाँव क़स्बा किसान को देखने की
कविता ने इस ओर अब
अपना रुख किया है
गाँव से जुड़ी
संस्कृति की माटी से
जन्म लेना चाहती है कविता
गाँव के खेतों की माटी की गंध से
आने लगी है आवाज़
यहाँ पार्टियों के धर्मों के झंडे मत गाड़ो
माटी के भीतर छिपे दबी हुई तह से
तड़प के दर्द की  टीस की
कर्राहती हुई आवाज़ निकलने लगी है
भीतर अन्न का दाना है
पनपने दो उसे
वही कविता का तत्व है
मर्म है
अर्थ है
धर्म है!!!

और हम हैं



हर  तरफ़ खामोशियाँ हैं और  हम  हैं।
अँधेरी    बस्तियाँ      हैं  और  हम  हैं।।

साथ   कोई  हो  न   हो   अपना  यहाँ,
बेवजह    मस्तियाँ    हैं  और  हम  हैं।।

कलम कागज़ और  सियाही  खून की,
गीत  ग़ज़ल रुबाइयाँ हैं  और  हम  हैं।।

रस्में - इन्सां  और मज़हब है रिवाजों में
बस  वही  बैसाखियाँ हैं  और  हम  हैं।।

सुलझा न पाया लाख कोशिश की यहाँ
उलझी  हुई  गुत्थियाँ हैं  और  हम  हैं।।

इसको  कहूँ  मैं बदनसीबी या  'निरंकुश'
यह  हमारी  गलतियाँ हैं  और  हम  हैं।।
                                  ---  निरंकुश ।

अक्षर



अक्षर ब्रह्म है
अक्षर अक्षर साथ मिलकर बनते हैं शब्द
शब्द शब्द एकजुट हो
वाक्य में ढल जाता है
वाक्य अनुभूति को
आरम्भ से श्रीइति तक
जन-जन के हृदय में ले आता है
सद्ग्रन्थ यही दर्शाता है
साहित्य में वर्णित
भूत में घटित
भविष्य में कोई न हो चकित
हृदय में अंकित होता साकार
साकारता नए आकार का
आकार ज्ञान-विज्ञान का
सज्ञान है नव-विहान का
यही आकार
हृदय में करता दीप प्रज्जवलित
टीम स्वतः तिरोहित होकर
ज्योतिपुंज बनकर
परमेश्वर की महिमा बताता है
ब्रह्म के स्वरूप को दर्शाता है
अक्षर यही तो दर्शाता है।
         *****
              कामेश्वर निरंकुश।

साँपों का डेरा



हर  जगह  जहाँ  तहाँ  साँपों  का  डेरा  है।
बजा  बजा  कर  बीन  साँपों  को  घेरा  है।।

काल के बिकराल सा विष फैला चारो  ओर,
क्यों  नहीं  कहते  यह  तेरा  नहीं  मेरा  है।।

वही  फुफकार  रहा  फन  को  उठाए  हुए,
लाड़ प्यार से जो  हाथ  बार  बार  फेरा है।।

भर  कटोरा  दूध  वह  रोज  गटकता  रहा,
भूल  गया वह यह  उसी  का  ही  डेरा  है।।

'निरंकुश' आहत  है  साँपों  की  बस्ती  में,
छोड़े  अब   कैसे  यह  मेरा  ही  डेरा  है ।।
                   *****
                           

साँपों का डेरा



हर  जगह  जहाँ  तहाँ  साँपों  का  डेरा  है।
बजा  बजा  कर  बीन  साँपों  को  घेरा  है।।

काल के बिकराल सा विष फैला चारो  ओर,
क्यों  नहीं  कहते  यह  तेरा  नहीं  मेरा  है।।

वही  फुफकार  रहा  फन  को  उठाए  हुए,
लाड़ प्यार से जो  हाथ  बार  बार  फेरा है।।

भर  कटोरा  दूध  वह  रोज  गटकता  रहा,
भूल  गया वह यह  उसी  का  ही  डेरा  है।।

'निरंकुश' आहत  है  साँपों  की  बस्ती  में,
छोड़े  अब   कैसे  यह  मेरा  ही  डेरा  है ।।
                   *****
                           ---  निरंकुश। डेरा

हर  जगह  जहाँ  तहाँ  साँपों  का  डेरा  है।
बजा  बजा  कर  बीन  साँपों  को  घेरा  है।।

काल के बिकराल सा विष फैला चारो  ओर,
क्यों  नहीं  कहते  यह  तेरा  नहीं  मेरा  है।।

वही  फुफकार  रहा  फन  को  उठाए  हुए,
लाड़ प्यार से जो  हाथ  बार  बार  फेरा है।।

भर  कटोरा  दूध  वह  रोज  गटकता  रहा,
भूल  गया वह यह  उसी  का  ही  डेरा  है।।

'निरंकुश' आहत  है  साँपों  की  बस्ती  में,
छोड़े  अब   कैसे  यह  मेरा  ही  डेरा  है ।।
                   *****
                           ---  निरंकुश।

Saturday, 22 October 2016

प्रेम



अंतर्निहित है प्रेम में
आखर आखर चाह
प्रेम का दुर्गम है राह
प्रेम में नही होता अपवाद
प्रेम का अनहद नाद
प्रेम एक शब्द
एक अनुभूति
एक जीवन
एक धड़कन
एक प्रतीक्षा
एक राग
एक सुबह
एक धुन
एक उड़ान
एक यात्रा
एक संसार
एक अंतर्भाव
एक तड़प
एक प्यास
एक आश
एक पुकार
एक चेहरा
एक बोल
एक याद
कितना अपार
कितना अपरुप
व्यास है
प्रेम के वृत्त का
बंधता ही नहीं भाषा में
जीवन में ही
कहाँ बंध पाता है प्रेम
प्रेम के हवा में कोई राग है
प्रेम में आग है।
    *****
      ---- कामेश्वर निरंकुश

गाँव


कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !

ड्योढ़ी पर दादी का अभाव
आँगन  से बुआ  का लगाव
घर में दीदी का कूद- फाँद
गुम हो गया छत  का चाँद
छुट्टी   में  घर  आने  पर
यहीं सबका जमता था पाँव!
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बूढा बरगद अब है उदास
कोई नहीं दीखता आसपास
सूना वीरान लगता दालान
घर के लोगों का नहीं ध्यान
मुखिया सरपंच नहीं दीखते
कहाँ गई बरगद की छाँव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाग-बगइचा ठाकुरबाड़ी
जहाँ मिलते थे बारी-बारी
जाति-पाँति का भेदभाव
अर्थहीन गप काँव- काँव
धीर-े धीरे नासूर बन रहा
ऊँच-नीच का उभरा घाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाबा की छड़ी खड़ाऊँ
ताक रही है कोने से
दादी का ऐनक- चिलम
पूजा थाल बिन धोने से
तुलसी का चौरा लीपे बिना
खुद बता रहा है हाव् भाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गॉंव !!

झाल, मंजीरा, दन्ताल, ढोल
सुनने मिलती घर घर की पोल
फगुआ, चैती के मधुर गीत
नही मिलते पहले सा मीत
खेत खलिहान में राजनीति की
बहस छिड़ी है ठांव  कुठांव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!
            ****

गाँव



कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !

ड्योढ़ी पर दादी का अभाव
आँगन  से बुआ  का लगाव
घर में दीदी का कूद- फाँद
गुम हो गया छत  का चाँद
छुट्टी   में  घर  आने  पर
यहीं सबका जमता था पाँव!
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बूढा बरगद अब है उदास
कोई नहीं दीखता आसपास
सूना वीरान लगता दालान
घर के लोगों का नहीं ध्यान
मुखिया सरपंच नहीं दीखते
कहाँ गई बरगद की छाँव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाग-बगइचा ठाकुरबाड़ी
जहाँ मिलते थे बारी-बारी
जाति-पाँति का भेदभाव
अर्थहीन गप काँव- काँव
धीर-े धीरे नासूर बन रहा
ऊँच-नीच का उभरा घाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

बाबा की छड़ी खड़ाऊँ
ताक रही है कोने से
दादी का ऐनक- चिलम
पूजा थाल बिन धोने से
तुलसी का चौरा लीपे बिना
खुद बता रहा है हाव् भाव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गॉंव !!

झाल, मंजीरा, दन्ताल, ढोल
सुनने मिलती घर घर की पोल
फगुआ, चैती के मधुर गीत
नही मिलते पहले सा मीत
खेत खलिहान में राजनीति की
बहस छिड़ी है ठांव  कुठांव !
कितना बदल गया है
मेरा वही पुराना गाँव !!

शरद का चाँद



इस ऋतु में
चाहकर भी नहीं
भूल पाउँगा तुम्हे।

गांव की गली का
वह तीसरा मोड़
जहाँ पहली बार मिले थे
मादक चंचल नयन
और आँखों ही आँखों में
एक दूसरे से
बहुत कुछ कह दिया था
हम दोनों ने।

वो बीते दिन
हरसिंगार से झरते
सुबह सबेरे
तुम्हारी बदन की खुशबू
दोपहर को मदहोश करनेवाली
महुआ की छाँव
और साँझ को
आम पेड़ के बगीचा में
हिरन सा कुलांचे भरकर
तुम्हारा अठखेलियाँ करना।

शरद ऋतु के रातों में
छिटकते चंचल किरणों के बीच
आँखों में तैरते
रातों के कुंवारे सपने
जिन्हें पकड़ने के लिए
आतुर व्याकुल थे
हमदोनो।
अब भी संजो कर रखा हूँ
तुम्हारे दिए वे कढ़े हुए
मेरे नाम का रुमाल
एक दूसरे को निभानेे का वचन
जो आज भी ज्यों का त्यों है।

सच कहूँ
आज भी तुम
उसी रात की तरह
शरद का चाँद हो।

आदत है


तेरे  हर जख़्म पर मरहम लगाऊँ,
मेरी आदत  है।
न जाने क्यों, मगर फिर भी, तुम्हे
मुझसे अदावत है।।

मेरे   डर  से  तेरी  हो  रहगुज़र,
इतनी तमन्ना है।
जो  तुझसे  दूर  है,  हर  रात  ही
जैसे  क़यामत है।।

तेरी  नज़रें  हैं   खंजर,  दिल  मेरा
हर  सिम्त  घायल है।
तेरी   मदहोश   करती   चाल,  अल्ला
कैसी  शामत   है।।

कली   गुलाब   की  है   या  कि  ये,
रुखसार   हैं   तेरे।
इन्हें   छू  लूँ,  इन्हें   चूमूँ,  ये  हसरत
और   आफत  है।।

तेरी   एक  हाँ  से  मुझको जीने  का
मकसद तो  मिल जाता।
' निरंकुश '  मर रहा है  लोग  कहते
हैं  सलामत  है  ।।
             *****

आदत है



तेरे  हर जख़्म पर मरहम लगाऊँ,
मेरी आदत  है।
न जाने क्यों, मगर फिर भी, तुम्हे
मुझसे अदावत है।।

मेरे   डर  से  तेरी  हो  रहगुज़र,
इतनी तमन्ना है।
जो  तुझसे  दूर  है,  हर  रात  ही
जैसे  क़यामत है।।

तेरी  नज़रें  हैं   खंजर,  दिल  मेरा
हर  सिम्त  घायल है।
तेरी   मदहोश   करती   चाल,  अल्ला
कैसी  शामत   है।।

कली   गुलाब   की  है   या  कि  ये,
रुखसार   हैं   तेरे।
इन्हें   छू  लूँ,  इन्हें   चूमूँ,  ये  हसरत
और   आफत  है।।

तेरी   एक  हाँ  से  मुझको जीने  का
मकसद तो  मिल जाता।
' निरंकुश '  मर रहा है  लोग  कहते
हैं  सलामत  है  ।।
             *****

बनिए



कवि सम्मेलन में कवि फटाफट जी आए
सटासट से फरमाए
कौन सी जाति सबसे अच्छी होती है  बताइये
सटासट जी बोले :- बनिए
फटाफट :- वह कैसे
सटासट  :- आपने देखा नहीं
                 हर जगह
                 इधर उधर
                 जहाँ तहाँ
                  यहाँ वहाँ
                  दूकान पर
                  हर प्रतिष्ठान पर
                  लिखा हुआ है
                  'बनिए"  
फटाफट :-   वह कैसे
 सटासट :-   हर जगह लिखा होता है -
     देश के अच्छे नागरिक "बनिए"
     सच्चे देश भक्त "बनिए"
     समझदार "बनिए"
     ईमानदार  "बनिए"
     पढ़े लिखे "बनिए"
     सच्चे "बनिए"
     अच्छे " बनिए"
     सामाजिक "बनिए"
     व्यवहारिक "बनिए"
     फलाहारी "बनिए"
     शाकाहारी "बनिए"
     सात्विक " बनिए"
     धार्मिक " बनिए"
यह देखकर और सुनकर
फटाफट घबराया
सब जातियों में बनिए ही श्रेष्ठ है बताया
बाकि सब जातियाँ
धरी की धरी रह जायेगी
कुछ कर नहीं पाएगी
सच तो यही है
झटपट
सरपट
झटाझट
सरपट यह खबर फैलाओ
जातियों में कोई भी
इसकी बराबरी कर नही पाएगा
यही कुछ अपना करतब दिखलायेगा।
                 *****
              कामेश्वर निरंकुश।

शब्दों का चमत्कार



वाकई अद्भुत शब्दों का संयोग
पहला अनुकूल
दूसरा प्रतिकूल
पहले शब्द की जीत
दूसरा पराजित
आइए मिलाइये
निर्णय जान जाइए
राम शब्द पहला
दूसरा रावण
कृष्ण पहला
दूसरा कंस
ओबामा पहला
दूसरा ओसामा
पहले शब्द ने दूसरे को क्या हस्र किया
यह सभी जानते हैं
एक अक्षर जीतता है
दूसरा हारता है
अपना राज पाट प्राण गंवाता है
यह जग जानता है
अब पहला शब्द नरेंद्र
और दूसरा नवाज़
जिसपर गिरनेवाली है गाज
छप्पन इंच के सामने
वह नहीं टिक पाएगा
एकदिन वह समाचार भी आएगा
विश्व के नक्शे में
एक खाली स्थान रह जाएगा।
                -- कामेश्वर निरंकुश

कौमी एकता



धर्म के नाम पर मत बांटो
यह हिंदुस्तान है।
यहॉं कौमी एकता की एक
अलग पहचान है ।

याद करें इतिहास
क्यों करते परिहास
यह सच है वे कई देशों से आए
यहॉं की सभ्यता को सराहा
यहीं का गुण गाया
यवन हूंण शक की
पठान मुगल मंगोल की
दास्तान एक सी रही
पहचान एक सी रही
इनसब का अनुपम योगदान है
यहॉं कौमी एकता की
अलग ही पहचान है।
यह हिंदुस्तान है।

Wednesday, 10 August 2016

बहुत अच्छा होता

बहुत अच्छा होता
राजनेताओं के बदले
शहीदों
स्व्तंत्रता सेनानियों
राष्ट्र प्रेमियों के नाम
संस्थान
राष्ट्रीय पथ
योजना
प्रतिष्ठान
परिवहन का नाम रखा जाता
उनकी कुर्वाणियों का ऋण देश चुकाता
हर जगह उनकी ही गाथा गाया जाता।

वेदना

व्यथा हृदय की
पीड़ा मस्तिष्क की
मात्र अनुभूति है
अभिव्यक्ति के लिए
शब्द सर्वदा अक्षम
अभाव यथार्थ का तिरोहित
मूक वाणी में सन्निहित
वाणी परायों के लिए
मौन वरेण्य
सहिष्णुता, धैर्य और श्रेय
पीड़ा में जिजीविषा
अनन्य प्रेम का प्रतीक
और मुमूर्षु
प्रेम का
निकटता का
लगाव का
अपनेपन का
विरामचिह्न !

      ***

आदिवासी

निश्छल
निष्कपट
पत्ते-झाड़-फूल
सुसज्जित
आदिम जनजाति की संस्कृति बिखेरती
मांदर की थाप पर थिरकती
झूमती नाचती गाती
कृत्रिमता से दूर
वन की सुंदरियाँ
कूदती फाँदती
वनक्षेत्र की तितलियाँ
हँसी की सम्मोहक फुहारें उँडेलती
श्रद्धा से
अपनेपन से
सहृदयता से
आगन्तुकों को
अपने प्रदेश में
भिन्न भिन्न परम्परा के वेष में
कहती हैं
जोहार!

जंगल से प्रेम
वन-जंतुओं से दोस्ती
चौड़ा वक्ष
चमकता ललाट
श्याम वर्ण
हँसुली की छाप
गोदाये हुए दाग
अर्द्धनग्न वस्त्र
कर्तव्यपरायणता में प्रवीण
अधिकार से विमुख
अपनी धुन में लीन
मांसल देह
बलिष्ठ भुजाएँ
नम्रता से झुकी आँखें
भेदभाव
लाभ-लोभ से दूर
आदिम जनजातियों के वंशज
आदिवासी
कंधे पर झूलते तीर-कमान
प्रबल व्यक्तित्ववान
जीवन अथक
गतिमान
हम हैं झारखंडी
हमें है अभिमान।
      *****

फेसबुक के यार

अँधेरा
खामोशी
और तनहाई
दूर भगाता है मित्र
खुशियाँ लुटाता है मित्र।

जान न पहचान
फेसबुक पर जुड़े
दो चार चैटिंग किए
बन गई पहचान
थोड़ी सी ऑनलाइन
दूर दराज रहनेवाले
एक दूसरे के करीब
नज़र ही नहीं जाती
कौन है अमीर कौन है गरीब
छुट्टियों में मजा
एक दूसरे की मदद
अकेलेपन का साथी
हर बातें साझा करने का साथी
नई पीढ़ी की नई दुनिया
यानि आप
फेसबुक के मित्र
बुरे लोग कहाँ नहीं होते
पर सब बुरे नहीं होते
सतर्क होकर मित्र बनाया
आपके करीब आया
मित्रता दिवस के दिन
फेसबुक के यार
सभी को नमस्कार
निरंकुश का जोहार।

कविता

जीवन का सार है कविता
शालीनता का दरबार है कविता
कविता जन्मती है
सृष्टि रचयिता के वन्दन से
नारी की करुण क्रंदन से
बच्चों की किलकारी से
किशोरों की आपाधापी झखमारी से
युवाओं की बलिष्ठ भुजाओं से
वृद्धों की अनुभवी सुझावों से
कुशल नेतृत्व की अगुआई से
श्मशान की कड़वी सच्चाई से
छले गए समाज से
घुटनवाली आवाज़ से
ग़रीब की असहाय बेटी से
भूख से बिलखती रोटी से
सज्जन की सच्चाई से
श्रमिकों के पैर की
फटी हुई विवाई से
माँ के मृदुल दुलार से
बहना के प्यार से
भाई की बेईमानी से
राजनीतिज्ञों की मनमानी से
सैनिकों की श्रीविजय से
न्यायालय के निर्णय से
समाज के कुठाराघात से
अपनों द्वारा घात-प्रतिघात से
लहलहाते खेतों से
तपती हुई रेतों से
बहती हुई धार से
तीक्ष्ण वाणी की कटार से
झरते हुए झरनों से
सुहागिन की गहनों से

कविता अब चाहती है
अर्द्धविराम !

थकान भरी ज़िन्दगी से
अपनी ही बन्दगी से
स्वर धीमा हो
कथ्य की सीमा हो
अब कविता
हीरे-सी अँगूठी में
नहीं गढ़ी जायेगी
भावनाओं में नहीं बह पाएगी
यह सत्य है
कविता के लिए
हरी-भरी झाड़ियों के साथ
दुर्गम खुरदरे पर्वत हों
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी हो
राजपथ से दूर हो
भावनाओं से भरपूर हो
तभी मिलेगा विराम।
         *****

संकट मोचक चक्रव्यूह

हो  गया  संकट  मोचक  चक्रव्यूह   तैयार ।

आतंकवादी   को  पनाह   दे   रहा  है  पाक
क्रूर  आतंकी कर  प्रशिक्षित दर्शाता है धाक
आतंकवादी के समर्थक हो जाओ होशियार।
हो गया संकट .......

भारत  कभी नहीं चाहता  तुमसे करना युद्ध
बहुत  तुम   ललकार चुके अब हुए हम  क्रुद्ध
सीमा पर तैनात सेना  है कर  रही चीत्कार।
हो गया संकट .......

अब्दुल हमीद की धरती  को तुमने है ललकारा
भगत सिंह सुखदेव सभी अब भी हमें है प्यारा
बहुत  सहे  अब  मेरी  बारी हम कर रहे हूँकार।
हो गया संकट .......

भूल  गए तुम  कारगिल- युद्ध हे धूर्त अभिमानी
भले  जान  गंवाई  हमने  पर कभी हार न मानी
घुसपैठिए  छद्मभेष  में  तुम मत  करना  टँकार।
हो गया संकट .......

जय  जवान के अनुगूँज से अब सेना में  उत्कर्ष
अंग  अंग अब  फड़क  उठा  है करना  है संघर्ष
अब  देखना  मेरा तांडव  हम  कर रहे  ललकार।
हो गया संकट .......
                         *****