Saturday, 22 October 2016

शरद का चाँद



इस ऋतु में
चाहकर भी नहीं
भूल पाउँगा तुम्हे।

गांव की गली का
वह तीसरा मोड़
जहाँ पहली बार मिले थे
मादक चंचल नयन
और आँखों ही आँखों में
एक दूसरे से
बहुत कुछ कह दिया था
हम दोनों ने।

वो बीते दिन
हरसिंगार से झरते
सुबह सबेरे
तुम्हारी बदन की खुशबू
दोपहर को मदहोश करनेवाली
महुआ की छाँव
और साँझ को
आम पेड़ के बगीचा में
हिरन सा कुलांचे भरकर
तुम्हारा अठखेलियाँ करना।

शरद ऋतु के रातों में
छिटकते चंचल किरणों के बीच
आँखों में तैरते
रातों के कुंवारे सपने
जिन्हें पकड़ने के लिए
आतुर व्याकुल थे
हमदोनो।
अब भी संजो कर रखा हूँ
तुम्हारे दिए वे कढ़े हुए
मेरे नाम का रुमाल
एक दूसरे को निभानेे का वचन
जो आज भी ज्यों का त्यों है।

सच कहूँ
आज भी तुम
उसी रात की तरह
शरद का चाँद हो।

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