Wednesday, 18 June 2014

गर्मीं और प्रेयसी

  
दिन भर की चुभती गर्मी 
चिलचिलाती धूप 
कहर बरसाती तपिश में 
राहत की बूंदे पड़ी 
चुलबुली बंद दरवाजे खोल 
घर से निकली 
हल्की वारिस से 
तपती शाम में ठंढक घुली 
फ़िज़ा भी बदली 
निग़ाहें चाहती थी 
तपती बहती हवा में भी 
चुलबुली 
संगमरमरी 
जानेमन को देखना 
देखते ही मिलती है 
शांति 
तरावट 
राहत 
वशर्ते कि 
वह प्रेमिका हो 
प्रेयसी हो 
प्यारी हो 
न्यारी हो । 

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर कविता .. कुछ जगहों पर व को "ब " कर दें ...
    कभी मेरे ब्लॉग पर पधारें. लिंक दे रहा हूँ. KAVYASUDHA ( काव्यसुधा )

    ReplyDelete