Tuesday, 9 April 2013

सुनहरे भविष्य के लिए


मिट्टी के गिलावे से
जमा किये गए
टूटे-फूटे ईंट को जोड़कर
खड़ा किया उसने
अपना आशियाना
रहने के लिए लगाया उसने
कनस्तर टिन का छत
और लकड़ी का दरवाजा
बहुत मुश्किल से
वर्षों बाद जमा किया
कुछ सिक्के औ' रुपए
दुर्दिन जानलेवा बीमारी
आतंकित भूख से सामना करने के लिए
कभी-कभी गिनता रहा
उन संचित राशि को 
सारे खिड़कियाँ दरवाजे बंद कर।
खिड़कियाँ और दरवाजे तो बंद हैं
फिर भी खुले हैं
उसके मन में शंकाओं के द्वार
आ रहा है उनमे से झोंका
लूट और धोखे से छिन जाने का
चौबीसों घंटे
अभावों का ऑक्सीजन
लेता वह व्यक्ति
शायद यह नहीं जानता कि
अभावों के साथ साथ
वह जी रहा है
वर्तमान में सुनहरे भविष्य के लिए
जो सपने उसने
मन में संजोकर रखे हैं...



Monday, 8 April 2013

औरत



अँधेरी रात
सड़क के किनारे विशाल भवन
उस विशाल भवन के ठीक नीचे
पीछे तरफ
अँधेरे कोने में
झोपड़ीनुमा घर
मिट्टी के बने चूल्हे की आग से
रौशनी की काम लेती
एक औरत
गिन रही है
अपने बच्चों को खिलाने के लिए
सुबह की बनी हुई रोटियाँ

विशाल भवन के
एक सुसज्जित कमरे में
ए .सी ऑन कर
सारे दरवाजे खिड़कियाँ बंद कर
मध्यम नीली रौशनी में गिन रही है
एक औरत
अपने रखे नोट के गड्डियों को
निहारती है ख़रीदे गए आभूषण औ' जेवरात को
भविष्व में
सौन्दर्य प्रसाधन
आधुनिक वस्त्र
खरीदने के लिए
ताकि दिखा सके स्वयं को
मॉडर्न फैशनेबल एडवांस
भविष्व में होने वाली
किट्टी औ' कॉकटेल पार्टी में।

आदमी



चमचमाती दौड़ती कार
कार की पिछली सीट पर बैठा
सूट पहने चश्मे के भीतर से झांकता है
बन रही शानदार अपार्टमेंट को
एक आदमी।

वर्तमान में लाखों खर्च हुए
पर भविष्य बहुत लाभप्रद होगा
यह विश्वास है
यह भी विश्वास है उसे
वर्तमान में बीमारियाँ झेलता शरीर
हाई ब्लड प्रेशर
ड़ाइबिटिस
ओर्थोराइटिज
हार्ट अटैक से बचाव हेतु
खर्च करने पर भी
भविश्व को शायद ही सुखमय रखे

फटी शर्ट पुराना पैन्ट पहने
टुकडे-तुकडे खपरैल से छाया हुआ छत
मिट्टी के मकान में
प्रशन्नचित मुद्रा में गुज़र करता है
एक दूसरा आदमी

वर्तमान में कमा कर
अपने परिवार के साथ रुखा-सूखा खाकर
खुश है
चिन्तामुक्त है
कठिन परिश्रम करने के बाद भी
उसे किसी बीमारी की दवा का नाम पता नहीं 
थकान होने पर
शरीर टूटने पर
तुलसी का काढ़ा
हल्दी मिश्रित गरम दूध
अदरक गुड काली मिर्च को पीस कर
पकाया गया लेप
सेवन करने पर
चुस्त महसूस करता है
वह दूसरा आदमी।

वह रोग-ग्रसित नहीं है
उसका भविष्य उज्ज़वल  है
शांत मन से
भजन औ' भोजन के कारण।


Sunday, 7 April 2013

दुखद घड़ी


विदा की दुखद घडी में
अश्रुपूरित है नयन 

पुष्प जो तुझपर चढ़ाए
मुरझाकर सब सुख गए
बहती हवा में धीरे धीरे
सारे के सारे उड़ गाए
उसे डंस गया कुंवारापन

तुम तो जीना चाहती थी
अंत में निकले थे शब्द
तेरी आर्त्तनाद सुनकर
पूरा देश भी था स्तब्ध
निरर्थक गया तेरा नमन

धरी की धरी रह गई
दी गई शुभकामनाएं
तेरह दिनीं तक लड़ी थी
सहती रही थी यातनाएं
नारी अस्मिता का हुवा  हवन

कब्र पर बसी यह दिल्ली
फिर कहानी कह गई
हैवानियत दरिंदगी से
एक अबला मर गई
फिर क्यों न हिला था भुवन

इस देश में इस देश के
लोगों के द्वारा लुट गई
लाडो स्वयं को कैसे संभाले
जिंदगी ही रूठ गई
देख रो पड़ा धरती गगन

भूल गए हम नारी की
सृष्टि सेवा औ समर्पण
बनावटी लगाने लगा
शव पर चढ़ाए फूल अर्पण
वह करती रही कष्ट का सहन  






आजाद भारत का काला अध्याय



देश की राजधानी में
कुछ दरिन्दगो ने लिख डाला
सोलह दिसम्बर दो हजार बारह को
काला अध्याय

राजघानी की सड़क पर
सरपट दौड़ती सवारी बस
बस में नारी
दबोच ली गई
उन बहशियों द्वारा
बलात्कार की शिकार
गिड़गिड़ाई
चिल्लाई 
अपनी अस्मत को नहीं बचा पाई
अंततः चलती बस से
दी गई नीचे फेंक
मानवता का यह था अतिरेक
हो गई वह लहू-लुहान
देख कर स्तब्ध था हिन्दुस्तान
मेरा भारत महान
 
वह चाहती थी जीना
किसी ने नहीं सूनी उसकी पुकार
अंततः जीवन से गई हार
तेरह दिनों तक
कष्टप्रद जीवन जिया
काल ने उसे
अठारह दिसम्बर को छीन लिया
इस घटना से हर ओर मचा चित्कार
बलात्कारियों को फाँसी मिले
यही थी पुकार
इसी पर वहाँ रखा गया ध्यान
मेरा भारत महान

घटना के बिरोध में
शांति पूर्वक प्रदर्शन करने पर
क्यों बरसायी जाती हैं लाठियाँ 
क्यों फेका जाता उनपर
पानी का बौछार 
प्रदर्शनकारियो पर
क्यों होता ही प्रहार
नारियों की कब होगी सुरक्षा 

कब कहेगें
आज़ाद भारत है अच्छा
इस पर रखे ध्यान
मेरा भारत महान

हर शहर में
नगर में 
डगर में 
 प्रत्येक दिन घटती है घटनाएँ
खुलेआम छेड़खानियाँ 
सुनती हैं फब्तियाँ
होती है बलात्कार की शिकार
बलात्कारियों की भरमार
क्यों विवश ही सरकार
सियासती गलियारों से क्यों नहीं आता
अनुकूल बयान
मेरा भारत महान

जनता की है यह मांग
बलात्कारियों को फांसी पर झुला दी जाए 
बनाया जाए ऐसा कानून
बहसियों का खत्म हो जुनून
अच्छा होता
कठोर दंड का प्रावधान
उसे सबक सिखाता
उन्हें फांसी पर झुला दिया जाता
इसी पर टिका है
सबो का ध्यान
मेरा भारत महान

कविता की वापसी


कविता
महानगरों के
शोर शराबा
भीड़ भाड़
भागती दौड़ती
धरातल से ऊबकर
वापस लौट रही है
घर की ओर
वह चाहती है
अपने लोंगों के बीच रहना
बच्चों की किलकारी सुनना
बाग बगीचों  में देखना चाहती है
खिलते हुए फूल
पेड़ की टहनियों पर
चिड़ियों का चहकना
घर के मुंडेर पर कौवे का काँव काँव
दालान की चौकी  पर बैठे
बाबा के भजन गाने की आवाज
दुवार पर बंधे बैल की घंटी की ध्वनि
बछड़े का कुलाँचे भरकर
गाय के थन पर मुह मारना
 झुर्रीदार चेहरे  से अपनापन और स्नेह के साथ
दादी द्वारा लकड़ी की आग पर
मक्के की रोटी सेंककर
गरम गरम परोसना
मटमैली साडी में सिमटी
चूड़ियों की खनक के साथ
गरम दूध का गिलास लिए
पत्नी का बढ़ता हुआ हाथ
कविता चाहती है
शब्दों में भरना


चिट्ठी नारी के नाम


खुला लैपटॉप
की-बोर्ड पर दौड़ती उंगलियाँ 
माउस की हलकी सी हरकत
एक छालान्गनुमा डग भरने पर
एक आकृति उभरी

लावान्यमयी नारी को देख
आँखें ठहरी
उसके सामने संसार के सारे खजाने बेमोल
उसे नहीं सकता कोई तोल
देखते ही देखते
लिख डाली एक चिट्ठी और किया प्रेषित
उसी नारी के नाम
जिसे कुछ शब्द-शिल्पी
करना चाहते हैं बदनाम

पूर्वाग्रह से ग्रसित
अपने आप में भ्रमित
जो स्वयं को समझते हैं
साहित्यकारों के धरातल पर सर्वोपरि हरदम
वे नहीं कर पाते हज़म
ख्याति प्रशंसा
राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी का
जीवन के रंग से अछुते
एक सुस्त बेरंग बेढंग और नीरस
ज़िन्दगी जीने वाले
वे तथाकथित लोग
पाखी को पंख विहीन नहीं कर सकते
ईश्वर प्रदत है नारी में
महुआ की मादक सुगंध
चंचल नयन
आकर्षक सुगठित देंह
पायल की रुनझुन
चूड़ियों की कनक के साथ नारी ने कलम उठाई है
उपन्यास के पात्रों के माध्यम से
जीवन की विमांशा समझाई है
नारी-माँ बेटी बहु पत्नी और प्रेमिका
होने का कराती है एहसास
नारी ही पूरे रुग्ण
 समाज की रीढ़ की हड्डी को मजबूत कर
स्वस्थ समाज का करती है निर्माण
इसी से होता है जन्म-कल्याण
तुम ही  रख सकती हो
भटको पर अंकुश
तुम्हारा निरंकुश 











Saturday, 6 April 2013

कविता का तत्व

विश्वास तो था ही मुझे
अपनी कविता पर
आस्था ने उसकी जड़ें
और भी मजबूत कर दी हैं 
कविता अब सीमित नहीं है
साम्प्रदायिकता विरोध
सत्ता विरोध
महंगाई विरोध
बाज़ार विरोध जैसे चालू नुस्खों तक
कविता
अस्थानियता और लोक से जुड़कर
कविता लोक का
एक नया प्रतिरूप गढ़ती हुई
आगे बढ़ी है
कविता यह ताड़ गयी है
महाकवियों को कहाँ फुर्सत है
गाँव क़स्बा किसान को देखने की
कविता ने इस ओर अब
अपना रुख किया है 
गाँव से जुड़ी
संस्कृति की माटी से
जन्म लेना चाहती है कविता
गाँव के खेतों की माटी की गंध से
आने लगी है आवाज़
यहाँ पार्टियों के धर्मों के झंडे मत गाड़ो
माटी के भीतर छिपे दबी हुई तह से
तड़प के दर्द की  टीस की
कर्राहती हुई आवाज़ निकलने लगी है
भीतर अन्न का दाना है
पनपने दो उसे
वही कविता का तत्व है
मर्म है
अर्थ है
धर्म है!!!

Wednesday, 3 April 2013

कान्हा और राधा



 कान्हा और राधा          
पहले कान्हा एक था
 राधा एक थी
और गोपियाँ अनेक थी
आज भी कान्हा एक है
राधा अनेक है
और गोपियाँ
सब राधा बनने को  तैयार
राधा बनने पर होंती है
आधुनिक कान्हा द्वारा तार तार
तभी तो
होली के अवसर पर
रंग खेलने के बहाने
घृणा पूर्ण हरकतें
नशीली वस्तुवों का प्रयोग
घूरती शरारती आंखे
आधुनिक वस्त्र
कामुक स्थिति जगाने में है सक्षम
कोई किसी से नहीं है कम
अपनापन
सौहार्द्य
प्रेम
कटता नज़र आता है
होली त्यौहार
परम्परावों से
टूटता और बिखरता नज़र अता है  

पाकिस्तान से सबंध


पाकिस्तान से  सारे सबंध
तोड़ लिया जाए
साफ़ सुथरा एक नया अध्याय
जोड़ दिया जाए 

वह है गैरजिम्मेदार
वह नही बनेगा वफ़ादार
किसी भी प्रकार का बातचित
उससे कर देवें बंद
यही भारत के लिए होगा अकलमंद

विश्व स्तर पर पाक को घेरें 
किसी भी स्थिति में
कभी न छोडें
भारत उन्ही देशों से रखे
व्यापारिक राजनीतिक  संबंध
जो ना  हो पाक का सहयोगी
तभी जनता की ख्वाईश  होगी पूरी

पकिस्तान के गुनाहों में
जो किसी प्रकार से हो सामिल
उससे रखें दूरी
चाहे कितनी भी हो मज़बूरी
उसके लिए बाजार कभी न खोले
वह भले येन केन प्रकारेन बोले